बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

हल जोतना चाहते हैं या एसी ऑफिस में बैठना... :)


Rashmi Ravija
आज कहीं एक मजेदार तर्क पढ़ा..."आप खेत में हल जोतना चाहते हैं या AC ऑफिस में बैठकर काम करना."
AC ऑफिस में बैठकर वो किसान और उसके बेटे तो काम नहीं ही करेंगे .और अगर ये ऑप्शन हो तो भी अपना स्वामित्व और गुलामी का फर्क बहुत बड़ा है . ये तर्क भी दिया जा रहा है ," जमीन से अच्छी फसल नहीं हो रही, सुविधाएँ नहीं हैं, इसलिए वहां फैक्ट्री लगाई जाये तो उसमे क्या बुराई है ?...इसके बदले सुविधाएं उपलब्ध क्यों नहीं कराई जा रहीं कि बढ़िया फसल हो.
दो साल पहले मेरी कामवाली अपने गाँव वापस लौट गई .सात साल पहले वो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मुम्बई आई थी .यहाँ घरों में काम करके बच्चों को पढ़ाया और जब वे नौकरी पर लग गए तो वो गाँव लौट गई .पिछले साल मिलने आई थी , अच्छी तंदरुस्त हो गई थी और थोड़ी काली भी .उसके पास काफी जमीन है, उसमें बढ़िया फसल हुई थी, कपास, सोयाबीन,चना.
अभी कुछ दिनों पहले फिर से मिलने आई थी. इस बार उसके खेत खाली पड़े हैं .पानी नहीं बरसा .फसल नहीं हो पाई .वो कुछ महीने फिर से घरों में काम करके गाँव लौट जायेगी क्योंकि उसके पास जमीन है और शायद इस साल अच्छी बारिश हो.
यही उसके खेतों को पानी की सुविधा मिली होती और उसके गाँव में अच्छे स्कूल होते तो शायद वो गांव छोड़कर शहर आती ही नहीं. अगर उसके पास जमीन होगी ही नहीं तो वो सारी ज़िन्दगी ये झाड़ू पोछा ही करती रहेगी .उसका पति हमेशा गाँव में ही रहा .उसे भी मजदूरी करनी पड़ेगी .रखा हुआ धन कितने दिन चलता है.
एक जमीन अधिग्रहण ऐसा भी
Sharad Shrivastav
दिल्ली मे कामन वेल्थ गेम के समय बहुत से नए फ्लाई ओवर बने थे.नेहरू प्लेस से एनएच 8 तक की रोड को सिग्नल फ्री करने के लिए उस पर बहुत से फ्लाई ओवर बनाए गए.लेकिन अंतिम फ्लाई ओवर राव तुला राम मार्ग का फ्लाई ओवर 6 लेन की जगह सिर्फ 2 लेन का बनाया गया.बाकी फ्लाई ओवर बनाने के लिए लोगों की दुकाने तोड़ी गयी, मकान हटाये गए.लेकिन ये सब कुछ राव तुला राम पर नहीं हो सका.आज उस 2 लेन फ्लाई ओवर की वजह से घंटो का जाम लगे रहने की आम मुसीबत है.लोग फँसते है, पेट्रोल जलाते हैं अपना कलेजा जलाते हैं, सरकार को इस 2 लेन फ्लाई ओवर की वजह से कोसते हैं और आगे बढ़ते हैं.
सवाल है की ये फ्लाई ओवर 2 लेन का ही क्यों बना, बाकी फ्लाई ओवर की तरह 6 लेन का क्यों नहीं.जवाब है इस फ्लाई ओवर के एक तरह बसे लोग, जो बहुत प्रभावशाली हैं.जिनमे चैनल पर बोलने वाले प्रसिद्ध न्यूज़ एंकर भी हैं.इन लोगों के घरों की जमीन ही एक बीघे से ऊपर है.दिल्ली के पॉश इलाके मे 1 बीघे जमीन का मतलब आप समझते ही होंगे की वहाँ बसे लोग कैसे होंगे.खैर सवाल उनकी जमीन का भी नहीं था.सरकार को फ्लाई ओवर बनाने के लिए उनकी जमीन नहीं चाहिए थी.उनके घर के बाहर की सर्विस लेन चाहिए थी, जो वैसे ही सरकारी थी.लेकिन प्रभाव तो अब ऐसा ही होता है.बाज लोगों ने वो भी नहीं लेने दी.
नतीजा आज सामने है.तो साहब जमीन अधिग्रहण का एक रूप ये भी है.सवाल सिर्फ कानून बनाने का नहीं कहाँ किस पर लागू करना है इस नीयत का भी है.जमीन सिर्फ किसान की ही नहीं ली जाती, शहरो मे भी जमीन ली जाती है.इस कानून की मार सब पर है, लेकिन एक बराबर नहीं. यूपी के एक छोटे शहर मे रेलवे क्रासिंग पर फ्लाई ओवर इसलिए न बन सका क्योंकि मंत्री महोदय अपने घर की बाउंडरी गिराने को तैयार न हुए, थोड़ी सी जमीन छोड़ने को तैयार न हुए.वो फ्लाई ओवर वहाँ से तीन किलोमीटर दूर बनाना पड़ा.

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

फरवरी इतनी गरम हो गयी है या सरकार की आंखों का पानी सूख गया है


पिछले दो दिन से फेसबुक पर किसान और उसकी जमीन पर उसके हक की बातें की जा रही हैं. यह अच्छा अवसर है वरना फेसबुक पर किसान और जमीन की बातें कहां होती थीं. अभी भी माहौल बदलने लगा है. कोई मदर टेरेसा विवाद की ओर बहक रहा है, कोई लप्रेक में उलझा है तो कोई क्रिस गेल की जै-जैकार कर रहा है. इस बीच कुछ लोगों ने बड़ी रोचक टिप्पणियां की हैं. ये टिप्पणियां आपके लिए छांट कर लाया हूं. मौका निकाल कर पढ़ें, इस अबूझ मसले को समझने में थोड़ी मदद मिलेगी....
Rajneesh Dhakray
उनके पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें हैं और कई तो नंगे पैर भी हैं. पैरों में बिवाईयों की नालियाँ बनी हुई हैं ऐसे में सीधे से खड़ा न हुआ जाये और वे सैकड़ों किलोमीटर चल रहे हैं रोज 12-14 किलोमीटर. एक वक़्त का खाना और रात गुजारने के लिए सिर के ऊपर खुला आसमान तो नीचे कंकरीली काली सड़क. फरबरी इतनी भी गरम नहीं होती कि रात को सिर्फ पतले कम्बल या चादर से ठण्ड बचाई जा सके. वे हज़ारों की संख्या में पंक्तिबद्ध होकर चल रहे हैं. दिल्ली उनसे उनकी जीविका छीनने की तैयारी में है और वे सत्याग्रह कर रहे हैं. स्वतंत्र (?) भारत में खुद के चुने हुए प्रतिनिधियों से गिड़गिड़ा रहे हैं कि उनकी ज़मीनें उनसे न छीनी जाएं, उनके जंगल जो हज़ारों सालों से उनका घर है उससे उनको बेदखल न किया जाए.
क्या एक नागरिक को उसके देश में एक टुकड़ा ज़मींन का हक़ नहीं होना चाहिए, जिस मिट्टी हवा पानी से उसका शरीर बना हुआ है क्या वही उसे उस देश का नागरिक बना देता है. इस सत्याग्रहियों की टोली में आदमी, औरत बच्चे सब हैं हर उम्र के हैं. बूढी अम्मा, अधेड़ चाची, युवा भाभी और युवतियाँ, बच्चियाँ. क्यों चल पड़े हैं ये लोग अपने घरों से, ये न पढ़े लिखे हैं और न ही इन्हें कानून की समझ है ये सरकार की विकास नीति भी नहीं समझते फिर क्यों ऐसे असह्यः कष्ट झेलते हुये दिन रात एक किये हुए हैं. वजह है इसके पीछे और इस वजह की समझ किसी किताब को पढ़कर या सेमिनार अटेंड करके नहीं आई है, उन्होंने ज़िन्दगी की किताब पढ़ी है, जीने की ज़द्दोज़हद का सेमिनार अटेंड किया है. एक रोटी, एक गमछा, एक पैरासिटामोल को तरसती ज़िन्दगियों को ख़त्म होते देखा है और यही उनकी पाठशाला है.
एक किसान अपनी जमीन से सिर्फ अपना पेट नहीं भरता बल्कि दस अन्य भूमिहीनों की जीविका भी उसी ज़मीन पर निर्भर होती है. अधिग्रहीत भूमि पर भूस्वामी को उचित मुआवजा (?)- जिसमें भूमि के मूल्य का दोगुना या तीनगुना मूल्य और एक परिजन को नौकरी देना शामिल हो सकता है- देकर क्या उस भूमि के वास्तविक मूल्य की भरपाई हो सकती है? फिर उन भूमिहीनों का क्या होगा जो परोक्ष रूप से उस जमींन से रोजगार पाते हैं और अपना एवं अपने परिवार का पेट भरते हैं, उन्हें क्या मुआवज़ा मिला कौन सी नौकरी मिली? जितने उद्योग लगते हैं इनमें किन्हें नौकरी मिलती है और किसका विकास होता है, इन प्लांट्स में काम करने वाला एक अदना सा चपरासी उन लोगों से जो कभी उस भूखंड के मालिक हुआ करते थे, कैसा हिकारत भरा व्यवहार करते हैं!
एक इंसान को 10-15-20 हज़ार की नौकरी के एवज़ में 10 लोगों की 5-5 हज़ार रूपये की आमदनी नहीं छीनी जा रही. ये कैसा विकास है? और एक इंसान को रोजगार देकर बाकी के 9 लोगों को भुखमरी की हालत में नहीं छोड़ा जा रहा? क्या फरबरी इतनी गरम हो गई जो इन पूंजीपतियों की सरकारों की आँख का पानी ही सूख गया? नहीं जनाब फरबरी इतनी भी गरम नहीं है बस एक रात खुले आसमान के नीचे बिताइये.
Rakesh Kumar Singh
अपने डेढवर्षीय संक्षिप्‍त कॉर्पोरेट कम्‍युनिकेशन काल में भूमिअधिग्रहण में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार का साक्षात भागीदार रहा हूं. दो थर्मल पावर प्रोजेक्‍ट्स के लिए लैंड एक्वायर होते देखा है. जनता की आवाज़ दबाने और उसके विरोध को समर्थन में तब्‍दील करने के जालिमाना नुस्‍खों के बारे में सुनेंगे तो होश फाक्‍ता हो जाएंगे आपके. पर्यावरणा के लिए होने वाली जनसुनवाई को 'सफल' बना लेने के बाद, कंपनी के कारिंदे बैठकर समर्थन का पोस्‍टकार्ड लिखते हैं, जो कलेक्‍टर की रिपोर्ट के साथ नत्‍थी होकर राजधानी में श्रमश्रक्ति भवन स्थित पर्यावरण मंत्रालय आते हैं. मंजूरी सुनिश्चित कराने. रात के जिस पहर में ये तैयारियां चल रही होती हैं, प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव के कमरे में हड्डी, बोतल, गड्डी समेत सारा इंतजाम टंच रहता है. एक कलेक्‍टर साहब को देखा, वे तबादले का फरमान हाथ में थाम लेने के बाद भी पर्यावरण जनसुनवाई की फाइल पर अपना दस्‍तखत दाग कर ही नयी पदास्‍थापना की ओर बढे.
ज़मीन ग़रीब किसानों की थी. आदिवासियों की भी थी. मुट्ठी भर अमीरों की भी थी. दलाल अमीरों में से चुने-बनाए गए थे. जिन्‍होंने, किसानों को जो जिस भाषा में समझे उस भाषा में समझाकर ज्‍यादातर ज़मीन कंपनी के हक में करवाए. जो रह गए उसको प्रशासन के साथ मिलकर कंपनी ने संभाला. जो न संभले उन्‍हें टेक्‍ल करने में पुलिस भी शामिल हो गई. उसके बाद भी जो बचे रह गए, वे रह गए. लड़ रहे हैं हक और आत्‍मसम्‍मान की लड़ाई. जिंदगी दूभर कर दी है संत्‍ता और कॉर्पोरेट ने मिलकर उनकी. अमूमन हर आने वाले घटनाक्रम की जानकारी शासन को होती है.
Arun Chandra Roy
दिल्ली के चारो ओर ध्यान से देखिये. किसान ख़त्म हो गए हैं. वे बिल्डर बन गए हैं. वे बिल्डिंग मेटेरियल के सप्लायर बन गए हैं. माल में बड़े शो रूम चला रहे हैं. उनके बच्चे एसयूवी में घूम रहे हैं. एनसीआर के तमाम डिस्को और पब उन्ही से गुलज़ार हैं. मुआवज़े का पैसा इसी पीढी में ख़त्म होने वाला है. हजारो हज़ार हेक्टेयर पर जहाँ गेहूं सरसों लहराते थे वहां पीलर उठ गए हैं. यह विकास है. और यह तमाम मेट्रो से लेकर बिहार झारखण्ड छतीसगढ़ ओडिशा में किसानो आदिवासियों से स्वावलंबन छीन रहा है. और रही सही कसर बीज खाद के दाम और सिंचाई की कमी कर रही है.
ये भी समझाया जा रहा है कि किसानी एक निकृष्ट पेश है. सीमान्त किसान की लगत पूरी नहीं हो रही है. ताकि कार्पोरेट फार्मिंग के लिए जमीन तैयार हो सके. दो दशको से बेरोकटोक ऐसा हो रहा है. सभी सरकारे शामिल रही हैं इसमें. उद्देश्य है कृषि पर निर्भरता और स्वावलंबन को ख़त्म करना. ये केवल धरने से यह नहीं होगा. बड़े आन्दोलन की जरुरत है इसके लिए. यह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से कही अधिक गंभीर समस्या है.
Anupam
कल सुबह मैं आ रहा हूँ. आपके घर. साथ में चार पुलिस वाले को भी लाऊंगा. आपका घर और ज़मीन मुझे चाहिए. चिंता मत करिए, मुफ्त में नहीं लूँगा. उसका मुआवाजा भी दूंगा लेकिन अपनी शर्त पर. आप मुझे नहीं बता सकते कि आपके घर की क्या कीमत है. आपके घर की कीमत तो मैंने खुद तय कर रखी है. मुझे दरअसल एक स्कूल बनाना है, देश के लिए. देश के विकास के लिए. मैं उस स्कूल से पैसे भी नहीं बनाऊंगा. सिर्फ समाज-सेवा करूँगा. बस आपका घर दो दिनों में खाली हो जाना चाहिए. मुआवजा मैं आपको एक हफ्ते में दे दूंगा. और बाद में अगर आपको स्कूल न दिखे तो वापिस घर मांगने मत आ जाना. हो सकता है मैं स्कूल न भी बना पाऊं, इसमें मेरी क्या गलती. और तो और, आप मेरे खिलाफ किसी अदालत में भी नहीं जा सकते.
जी हाँ, ठीक समझा आपने. मैं भूमि-अधिग्रहण वाले मुद्दे की तरफ ही संकेत कर रहा था. कुछ लोग हैं जो "विकास" और "प्रगति" के नाम पर लाये गए मोदी जी के इस अध्यादेश का समर्थन करते हैं. इतना ही नहीं, वो लोग मेरे जैसे लोगों को तो विकास-विरोधी भी मानते हैं. उन सभी दोस्तों से मेरा सवाल है कि कल सुबह कहीं मैं आपका ही घर कब्ज़ा करने आ गया तो? ..क्या करेंगे आप, क्या जवाब देंगे? सोच समझ के जवाब दीजियेगा.. कहीं आप भी विकास-विरोधी ना बन जाएँ.

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

आपदाओं को वरदान में बदलने के हुनरमंद कोसी के किसान भिखारी मेहता


2008 की भीषण बाढ़ के बाद बिहार के सुपौल जिले के ज्यादातर खेतों में रेत बिछी है, मगर जब आप भिखारी मेहता के खेतों की तरफ जायेंगे तो देखेंगे कि 30 एकड़ जमीन पर लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा आदि के पौधे लहलहा रहे हैं. महज 13 साल की उम्र में कॉपी-किताब को अलविदा कर हल पकड़ लेने वाले भिखारी मेहता को मिट्टी से सोना उगाने के हुनर में महारत हासिल है. वे 2004 की भीषण तूफान के बाद से लगातार जैविक तरीके से औषधीय पौधों की खेती कर रहे हैं. आज उनके खेत कोसी अंचल के किसानों के लिए पर्यटन स्थल का रूप ले चुके हैं. यह खबर आज के प्रभात खबर में प्रकाशित हुई इनकी कथा को आप भी जानें...
पंकज कुमार भारतीय, सुपौल
‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ को मूल मंत्र मानने वाले जिले के वीरपुर के किसान भिखारी मेहता कोसी के रेत पर जज्बे और उम्मीद की फसल उपजा रहे हैं. विषम परिस्थितियों के बीच से भी हमेशा नायक की तरह उभरने वाले भिखारी की जीवन गाथा संघर्षो से भरी है.वर्ष 2008 की कुसहा त्रसदी ने जब इलाके के किसानों को मजदूर बनने को विवश कर दिया तो भी भिखारी ने हार नहीं मानी और आज वह कोसी के कछार पर न केवल हरियाली की कहानी गढ़ रहे हैं बल्कि वर्मी कंपोस्ट उत्पादन के क्षेत्र में भी किसानों के प्रेरणास्नेत बने हुए हैं.
गरीबी ने हाथों को पकड़ाया हल
भिखारी ने जब से होश संभाला खुद को गरीबी और अभाव से घिरा पाया. पिता कहने के लिए तो किसान थे लेकिन घर में दो वक्त की रोटी भी बमुश्किल मिल पाती थी. अंतत: 13 वर्ष की उम्र में वर्ष 1981 में भिखारी मेहता ने किताब-कलम को अलविदा कहा और हाथों में हल को थाम लिया. मासूम हाथों ने लोहे के हल को संभाला तो गरीबी से जंग के इरादे मजबूत होते चले गये. लेकिन पहली बार ही उसने कुछ अलग होने का संदेश दिया और परंपरागत खेती की बजाय सब्जी की खेती से अपनी खेती-बाड़ी का आगाज पैतृक गांव राघोपुर प्रखंड के जगदीशपुर गांव से किया.
निभायी अन्वेषक की भूमिका
अगाती सब्जी खेती के लिए भिखारी ने 1986 में रतनपुरा का रुख किया. 1992 तक यहां सब्जी की खेती की तो पूरे इलाके में सब्जी खेती का दौर चल पड़ा. वर्ष 1992 में सब्जी की खेती के साथ-साथ केले की खेती का श्रीगणोश किया गया. फिर 1997 में वीरपुर की ओर प्रस्थान किया, जहां रानीपट्टी में केला और सब्जी की खेती वृहद स्तर पर आरंभ किया. वर्ष 2004 का ऐसा भी दौर आया जब भिखारी 40 एकड़ में केला और 20 एकड़ में सब्जी उपजा रहे थे. भिखारी के नक्शे कदम पर चलते हुए पूरे इलाके में किसानों ने वृहद् पैमाने पर केले की खेती आरंभ कर दी. यह वही दौर था जब वीरपुर का केला काठमांडू तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. इलाके के किसानों के बीच केला आर्थिक क्रांति लेकर आया और समृद्धि की नयी इबारत लिखी गयी.
2004 का तूफान टर्निग प्वाइंट
भिखारी जब केला के माध्यम से समृद्धि की राह चल पड़ा तो वर्ष 2004 अगस्त में आया भीषण तूफान उसकी जिंदगी का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ. पलक झपकते ही केला की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गयी और एक दिन में लखपती भिखारी सचमुच भिखारी बन गया. बावजूद उसने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. विकल्प की तलाश करता हुआ औषधीय खेती की ओर आकर्षित हुआ. वर्ष 2005 में भागलपुर और इंदौर में औषधीय एवं सुगंधित पौधे के उत्पादन की ट्रेनिंग ली और मेंथा तथा लेमनग्रास से इसकी शुरुआत की. रानीगंज स्थित कृषि फॉर्म में भोपाल से लाये केंचुए की मदद से वर्मी कंपोस्ट उत्पादन की नींव डाली. इस प्रकार एक बार फिर भिखारी की गाड़ी चल पड़ी.
कुसहा त्रसदी साबित हुआ अभिशाप
18 अगस्त 2008 की तारीख जो कोसी वासियों के जेहन में महाप्रलय के रूप में दर्ज है, भिखारी के लिए अभिशाप साबित हुई. हालांकि उसने अभिशाप को जज्बे के बल पर वरदान में बदल डाला. कोसी ने जब धारा बदली तो भिखारी का 20 एकड़ केला, 20 एकड़ सब्जी की खेती, 20 एकड़ लेमनग्रास, 20 एकड़ पाम रोज एवं अन्य औषधीय पौधे नेस्त-नाबूद हो गये. कंगाल हो चुके श्री मेहता को वापस अपने गांव लौटना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2010 में पुन: वापस वीरपुर स्थित फॉर्म हाउस पहुंचे.
रेत पर लहलहायी लेमनग्रास और मेंथा
कोसी ने जिले के 83403 हेक्टेयर क्षेत्र में बालू की चादर बिछा दी. जिसमें बसंतपुर का हिस्सा 21858 हेक्टेयर था. ऐसे में इस रेत पर सुनहरे भविष्य की कल्पना आसान नहीं थी. लेकिन प्रयोगधर्मी भिखारी ने फिर से न केवल औषधीय पौधों की खेती आरंभ की बल्कि नर्सरी की भी शुरुआत कर दी. वर्ष 2012 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार श्री मेहता के फॉर्म पर पहुंचे तो 30 एकड़ में लहलहा रहे लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा को देख भौंचक्क रह गये और वर्मी कंपोस्ट इकाई से काफी प्रभावित हुए. आज श्री मेहता रेत पर ना केवल हरियाली के नायक बने हुए हैं बल्कि 3000 मैट्रिक टन सलाना वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन कर रहे हैं. वर्मी कंपोस्ट की मांग को देखते हुए उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं लेकिन संसाधन आड़े आ रही है.
अब किसानों के बीच बांट रहे हरियाली
हरियाली मिशन से जुड़ कर श्री मेहता अब किसानों के बीच मुफ्त में इमारती और फलदार पेड़ बांट रहे हैं. उनका मानना है कि रेत से भरी जमीन में पेड़-पौधे के माध्यम से ही किसान समृद्धि पा सकते हैं. वे अपने सात एकड़ के फॉर्म हाउस को प्रशिक्षण केंद्र में तब्दील कर चुके हैं, जहां किसान वर्मी कंपोस्ट उत्पादन और औषधीय खेती के गुर सीखने पहुंचते हैं. कृषि के क्षेत्र में उनके समर्पण का ही परिणाम है कि उन्हें वर्ष 2006 में कोसी विभूति पुरस्कार और 2007 में किसान भूषण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. वर्ष 2014 में जीविका द्वारा भी उन्हें कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत किया गया. बकौल भिखारी मेहता ‘जमीन में असीम उर्जा होती है, तय आपको करना है कि कितनी दूर आप चलना चाहते हैं’.

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

उड़िया गया यूरिया, मच रही है लूट


बासुमित्र
यूरिया की कालाबाजारी एवं किल्लत को लेकर बुधवार को मधेपुरा में किसानों का आक्रोश फूट पड़ा. मधेपुरा के मुरलीगंज में स्थिति इतनी भयावह हो गयी कि किसान ट्रक पर लदी खाद बोरियां लूट ले गये. उपद्रव कर रहे किसानों को नियंत्रित करने के लिए एसपी आशीष भारती को खुद मोरचा लेना पड़ा, तब जाकर शाम चार बजे तक हालत काबू में आये. कई महीनों से किसान यूरिया की किल्लत से परेशान थे. बुधवार की अहले सुबह किसानों को सूचना मिली कि दो ट्रक खाद एक एजेंसी के गोदाम पर पहुंचनेवाला है. सुबह तीन बजे ही हजारों की संख्या में किसान एजेंसी की दुकान व गोदाम के पास पहुंच गये. वहां किसानों को पता चला कि ट्रक बेंगा नदी के किनारे लगा हुआ है. इसके बाद किसान कई भाग में बंट कर प्रदर्शन व नारेबाजी शुरू कर दी. एक गुट नदी के किनारे लगे ट्रक के पास पहुंच कर खाद की बोरियां लेकर भागने लगे. सूचना पर थानाध्यक्ष, बीडीओ व सीओ मौके पर पहुंचे और किसानों से पंक्तिबद्ध होकर खाद लेने के लिए समझाया. किसान मान गये. इसके बाद अधिकारियों ने किसानों को बीएल हाइस्कूल के मैदान पर खाद वितरण होने की बात कही. जब किसान बीएल हाइस्कूल पहुंचे, तो वहां खाद का ट्रक नहीं देख आक्रोशित होकर थाने पर हमला बोल दिया.
पंद्रह दिन पहले ही पटवन हो चुका है. खेत में गेहूं मक्का के फसल लहलहा नहीं रहे हैं. किसान यूरिया के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं. लेकिन यूरिया बाजार से गायब है. चौक-चौराहे से लेकर गली मोहल्ला के खाद-बीज की दुकानों पर यूरिया की खोज कर निराश लौट जाते हैं. हर साल खेती के समय यही आलम होता है. जमाखोरी और कालाबाजारी के कारन यूरिया बाजार से गायब हो जाती है और किसान लाचार और बेबस हो जाते है. 335 से 350 रुपये प्रति पैकेट बिकने वाला यूरिया 500 से 550 रुपये की दर से चोरी छिपे बिक रहा है. अपनी खेती और फसल बचाने के चक्कर में किसानों की जेब ढीली हो रही है.
पेशे से मास्टर धमदाहा के चन्द्रशेखर मरांडी ब्लैक में 500 रुपये प्रति बोरा की दर से यूरिया खरीद कर भी खुश हैं. चलो पैसा जो ज्यादा लगा कम से कम फसल तो बच गयी वरना यूरिया के बिना फसल तो मार ही खा जाती.
खोजे ही नहीं मिल रहा यूरिया
सब किसान चंद्रशेखर की तरह खुशनसीब नहीं है. वैसे किसान जिसकी जीविका का प्रमुख्य साधन खेती-किसानी ही है, उसकी स्थिति और ज्यादा खराब है. वे लगातार 15 दिनों से दुकान का चक्कर लगा रहे हैं. गेहूं की खेती कर रहे रामचंद्र युवा किसान है. रामचंद्र बताते हैं की इस साल 5 बीघा में गेहूं बोया था, पटवन हो चुका है. यूरिया के लिए रोज 10 किलोमीटर का सफर तय कर बाजार तक आते हैं. दुकान-दुकान पूछ -पूछ कर थक चुके हैं लेकिन कही जुगार नहीं बैठ रहा है. खेती-किसानी के समय यूरिया की किल्लत होगी तो कैसे खेती होगी. यूरिया के बिना अनाज ही नहीं होगा सब चौपट हुआ जा रहा है.
महीने भर से चल रहा है लुकाछिपी का खेल
ऐसा नहीं है की यूरिया की किल्लत अचानक से सामने आयी है. एक माह से कीमत और स्टॉक का खेल चल रहा है. आम दिनों में 350 रुपये में बिकने वाला यूरिया 450 रुपये में चोर बाजार में बिकना शुरू हो गया था. लोग जरूरत और मजबूरी के नाम पर ऊंची कीमत पर खरीद भी रहे थे. जैसे-जैसे बोने का सीजन ख़त्म हुआ यूरिया का दाम भी सर चढ़ने लगा.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

नमस्कार ! यह भेल्दी बुलेटिन है..


बिहार के सारण जिले के पंचायत भेल्दी में पिछले एक साल से अनूठे बुलेटिन का प्रसारण हो रहा है. इस बुलेटिन में गांव का एक जागरूक युवक गीत-संगीत के साथ सरकारी योजनाओं की जानकारी का नियमित प्रसारण लाउडस्पीकर लगा कर कर रहा है. पिछले दिने प्रभात खबर में यह अनूठी खबर प्रकाशित हुई थी. अब आपके लिए...
सारण जिले में ऐसा पंचायत है जिसका अपना रेडियो स्टेशन है और रेडियो स्टेशन के माध्यम से पंचायत के नागरिकों को सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों के बारे में प्रतिदिन नियमित रूप से जानकारी दी जाती है. नमस्कार, यह भेल्दी बुलेटिन है, से समाचार की शुरुआत होती है. इस अनूठे रेडियो स्टेशन की स्थापना पंचायत के निवासी स्नातक उत्तीर्ण युवक राहुल कुमार सिंह ने की है और इसका संचालन भी वह अपने निजी प्रयासों से कर रहे हैं. परसा प्रखंड में पड़ने वाली भेल्दी पंचायत के करीब आधा दर्जन गांवों में इस रेडियो स्टेशन के माध्यम से सुबह-शाम तथा दोपहर को प्रसारण करने की व्यवस्था है. मुख्य रूप से पंचायत क्षेत्र में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों, कार्यान्वित होने वाली योजनाओं, बैठक, आम सभा, ग्राम सभा तथा सरकार द्वारा जारी सूचना आदि का मुख्य रूप से प्रसारण किया जाता है. प्रतिदिन शाम साढ़े सात बजे से लेकर साढ़े आठ बजे तक समाचार का प्रसारण होता है, जिसमें पंचायत क्षेत्र की घटनाओं, विकास संबंधित योजनाओं, इंदिरा आवास के लाभार्थियों की सूची, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, सामाजिक सुरक्षा योजना के लाभुकों की सूची का प्रसारण किया जाता है. इस रेडियो स्टेशन के माध्यम से योजनाओं तथा लाभार्थियों की सूची का प्रसारण किये जाने से न केवल हकदारों तक पारदर्शी तरीके से योजनाओं का लाभ पहुंच रहा है बल्कि दलालों तथा बिचौलियों पर लगाम लगाने में भी काफी हद तक सफलता मिली है.
इस तरह होता है प्रसारण
पंचायत के भेल्दी गांव में रेडियो स्टेशन का मुख्यालय जहां से तार के जरिये भेल्दी, यादवपुर, भेल्दी नवादा, गोपालपुर, लगनपुरा आदि गांवों तक लाउडस्पीकर लगाया गया है. पंचायत में बिजली नहीं रहने के कारण प्रसारण के समय जेनरेटर का प्रयोग किया जाता है. सुबह में भक्ति गीतों के साथ प्रसारण की शुरुआत होती है. दोपहर में सूचनाओं के प्रसारण के अलावा मनोरंजन के लिए फिल्मी गीतों का भी प्रसारण होता है. पंचायत क्षेत्र में होने वाले खेलकूद, स्कूलों में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के भी बारे में श्रोताओं को जानकारी दी जाती है. इस रेडियो स्टेशन की स्थापना करने वाले राहुल कुमार सिंह बताते हैं कि इसका कोई नामकरण अभी नहीं किया गया है. करीब एक वर्ष पहले इसकी शुरुआत फरवरी 2014 में की गयी थी. तीन भाई तथा दो बहन में सबसे छोटे राहुल सिंह मुख्य रूप से भारतीय सेना के कैंटिन में मनीपुर इंफाल में फूड सप्लाइ का कारोबार करते हैं और इसी कार्य में उनके एक भाई सहयोग करते हैं. आर्थिक रूप से संपन्न राहुल के मन में गांव तथा पंचायत वासियों के लिए कुछ करने की ललक ने यह अनूठा प्रयास करने को विवश किया जो आज धरातल पर उतर चुका है. पंचायत में कोई भी नयी बात होती है तो ग्रामीण भी इस रेडियो स्टेशन तक प्रसारण के लिए सूचना पहुंचाते हैं. इस स्टेशन के माध्यम से सूचनाएं प्राप्त करने के लिए श्रोताओं को किसी प्रकार का खर्च भी नहीं करना पड़ता है और न ही उन्हें कोई उपकरण रखने की जरूरत है. बस प्रसारण के समय अपने पंचायत के किसी भी गांव में रहने भर की जरूरत पड़ती है. लगभग सभी गांवों के चौक -चौराहों पर पर्याप्त संख्या में स्थायी रूप से लाउडस्पीकर लगे हुए हैं. जिससे प्रसारित होने वाली सूचनाएं, भक्ति गीत और मनोरंजन से जुड़े कार्यक्रम आसानी से सुनने को मिल जाती है.
साभार- प्रभात खबर

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

79 दिन से खरीद के इंतजार में पड़ा है धान


यह एक किसान का दर्द है. यह किसान पहले पत्रकार था और दिल्ली में अच्छी खासी नौकरी कर रहा था. मगर उसने तय किया कि वह अपने गांव में जाकर खेती करेगा और दुनिया के इस प्राचीनतम पेशे से जुड़कर गौरवान्वित महसूस करेगा. चिन्मयानंद सिंह काफी संवेदनशील युवा हैं और खेती के साथ-साथ फेसबुक पर भी काफी सक्रिय रहते हैं और गांव की मधुरता को हमारे लिए पेश करते हैं. आज उनकी वाल पर एक उदास करने वाली पोस्ट थी, जिसे पगडंडी आपके सामने साझा कर रहा है. इस विडंबना को समझने के लिए कल की पोस्ट किसानों को देश निकाला दे दीजिये हुजूर... को भी पढ़ा जाये.
आज #खलिहानडायरी में दर्द बयां कर रहा हूं। इस तरह बिखरे हुए धान के लिए बिहार सरकार जिम्मेदार है। पिछले 79 दिनों से यह धान पैक्स द्वारा अपनी खरीद का इंतज़ार कर रहा है, और रोज़ ही तारीख बढ़ती जाती है। इधर चूहों और गिलहरियों का खेल जारी है। आज मन चिढ़ा हुआ है अब,पिताजी ने भी अल्टीमेटम दे दिया है कि अपनी जिद छोड़ो और बाज़ार में बेच लो। मेरी जिद पर ही धान को रोककर रखा गया था, नहीं तो कब का ही इसे 1600₹ की जगह 950₹/क्विंटल की दर से बेच दिया जाता। अब लगता है कि इसके कपार में ही नहीं लिखा हुआ है अच्छा दाम पाकर बिकना। आखिर किसान का घर फसल बेच कर ही चलता है ना, कितने दिन तक इंतज़ार करेगा किसान भला? और दो-चार दिन में नहीं होगी अगर धान की अधिप्राप्ति....तो फिर बेच देंगे ऐसे ही। #खलिहानडायरी

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

किसानों को देश निकाला दे दीजिये हुजूर...


कहने को बिहार सरकार ने किसानों की धान की देश में सबसे ऊंची कीमत 1560 रुपये प्रति क्विंटल देने की घोषणा कर दी है, मगर हकीकत है कि राज्य के अधिकतर इलाकों में घोषणा के दो माह बीत जाने पर ही धान खरीद केंद्र अब तक नहीं खुले हैं. जहां खुले भी हैं वहां सौ अड़गे और बहानेबाजी, लिहाजा किसान इस बार खरीफ की पैदावार लेकर बिचौलियों की शरण में जाने को विवश हैं. वहां उन्हें 1100 रुपये प्रति क्विंटल से अधिक मिलने की कोई सूरत ही नहीं बन रही है. यह स्थित तकरीबन बिहार के हर इलाके की है. यहां बासुमित्र ने पूर्णिया जिले के धमदाहा अनुमंडल के किसानों के जमीनी हालात को बताते हुए यह समझने-समझाने की कोशिश की है कि आखिर जमीन पर घट क्या रहा है... दिल्ली में सत्ता के उखाड़-पछाड़ और ओबामा के आने की रौनक के बीच इस खबर को भी पढ़े जाने की जरूरत है. क्योंकि सोशल मीडिया के इस दौर में भी इस बात का इंतजाम अब तक नहीं हो पाया है कि इंसान बिना कुछ खाये जिंदा रह सके....
(तसवीर के लिए प्रशांत चंद्रन का आभार)
पिछले साल के नवंबर महीने में धमदाहा के किसानों की बोली में जो ठसक थी वह इन दिनों गायब है. उनके मुंह से बकार नहीं फूट रहा. घर धान से भरे हैं, मगर बुद्धि काम नहीं कर रहा है कि बेचें कि बचा लें. पैकार(व्यापारी) का भाव ग्यारह से उपर नहीं जा रहा. पिछले दो माह से लोग रोज पैक्स जाकर देखते हैं कि सरकारी खरीद केंद्र खुला कि नहीं. अखबारों में 1560 रुपये के भाव के दावे भी पुरानी फिल्म के पोस्टर की तरह उतर गये हैं. कहीं कोई धान खरीद की बात नहीं कर रहा. न पक्ष, न विपक्ष. रोज दरवाजे पर धान को फैला देते हैं कि नमी की कमी बरकरार रहे, कहीं फफूंद न लग जाये... और पता लगाते रहते हैं कि कहीं कोई पैकार ज्यादा भाव तो नहीं दे रहा.
पूर्णिया जिले का कृषि विभाग बताता है कि इस बार जिले में लक्ष्य से अधिक धान की खेती की गयी है. जिला कृषि पदाधिकारी इन्द्रजीत प्रसाद सिंह कहते हैं, विभाग से तो सिर्फ 98 हजार हेक्टेयर जमीन पर धान की खेती का लक्ष्य आया था, जबकि किसानों ने 1 लाख 2 हजार हेक्टेयर में धान रोप दिया. हालांकि इससे किसानों को कोई नुकसान नहीं हुआ. किसान इंद्र भगवान को दोष नहीं देते हैं, कहते हैं, भले शुरुआत पानी कम पड़ा मगर जाते-जाते कसर पूरी कर दिया. ऐसे उपज भी जोरदार हुई. धान की बाली को देखकर किसान मूंछ पर ताव दे रहे थे कि इस बार तो मकई के नुकसान का कसर भी निकल जायेगा. पिछले सीजन में मक्के की फसल गड़बड़ा गयी थी.
गांव के किसान नवीनचंद्र ठाकुर कहते हैं, किसानों के साथ यही होता है. कभी उपरवाले की मार तो कभी सरकार की बेवफाई... जब मौसम खराब होता है तो हमलोग मन मसोस कर रह जाते हैं. मगर जब बंपर पैदावार हो और फसल का पैसा ठीक से नहीं मिले तो समझ नहीं आता, क्या करें. उड़ती-उड़ती खबर है कि सरकार इस बार धान खरीदना ही नहीं चाहती. एक तो सरकारी गोदाम पहले से फुल है, फिर सुन रहे हैं खाद्य सुरक्षा के कानून में भी कटौती होने वाली है. इसलिए मीडिया में सरकारी खरीद का ढोल जरूर पीटा जा रहा है, मगर सरजमीन पर ऐसा इंतजाम किया गया है कि क्या कहें... देख ही रहे हैं, फरवरी में भी क्रय केंद्र नहीं खुला है...
नवीन जी तो थोड़े समृद्ध किसान हैं. वे थोड़ा नफा-नुकसान झेल लेते हैं. मगर लीज पर खेत लेकर खेती करने वाले छोटे किसान तो धान की बात पूछने पर ही बमक उठते हैं. नागिया देवी कहती हैं, पहले जहां 3 से 4 हजार रुपये में एक बीघा जमीन लीज पर मिल जाता था, अब लीज का रेट भी दो गुना से अधिक बढ़ गया है. उसने बेटी की शादी के लिए सूद पर पैसा लिया था. सोचा था, धान बेचकर कर्ज चुका देगी. अब तो महाजन के सामने जाने में डर लगता है.
बटाई पर खेती करने वाले मनोहर बताते हैं, हमने पंप सेट चलाकर पटवन किया था. डीजल अनुदान का पैसा भी टाइम पर नहीं मिला. पता चला कि पैक्स में इस बार धान का रेट 1560 रुपया हो गया है, हम उसी उम्मीद में थे. अब आधा धान 1050 रुपया के रेट से बेचे हैं, बांकी बचा कर रखे हैं कि कहीं रेट बढ़ जाये या खरीद केंद्र ही खुल जाये...
लीज पर खेती करने वाले ब्रह्म मुनि बताते हैं, चाहे धान की खेती हो मक्के की किसानी गरीबों के बस से बाहर होती जा रही है. खेत जुताई से लेकर खाद-बीज और मजदूरी तक बढ़ती जा रही है जिस कारण से खेती की लागत पहले की तुलना में काफी बढ़ गयी है. धान की खेती का हिसाब पूछने पर वे कहते हैं, अगर लीज ले कर खेती की जाय तो एक बीघा धान की खेती में 12 से 13 हजार रुपये का खर्च आ जाता है. वहीं एक बीघा में 16 से 20 क्विंटल धान उपजता है. किसान परिवार लगातार 4 महीने की मेहनत के बाद मुश्किल से 6 से 7 हजार रुपये बचा पाता है वो भी तब फसल अच्छी हो और धान का सही कीमत मिले. मगर इस बार तो उस पर भी आफत है... सरकार तो 1560 रुपया का रेट ब्रोडकास्ट(ब्रॉडकॉस्ट) करके ताली पिटवा रही है, यहां एक कोई एक कनमा धान खरीदने के लिए तैयार नहीं है. इससे अच्छा तो किसानों को देश निकाला दे दीजिये हुजूर...