गुरुवार, 8 जनवरी 2015

बिहार का चीनी उद्योग - मीठी यादें, कड़वी सच्चाई


सुनील कुमार झा की पहचान शोधपरक खबरों के पत्रकार के रूप में है. वे खबरों के लिए पर्याप्त समय लेते हैं और अपनी खबर को मुकम्मल तरीके से पेश करते हैं. इन दिनों वे बिहार के जूट उद्योग के पतन की कहानी के तथ्य जुटाने में लगे हैं. हमने पगडंडी के लिए उनकी इस खबर पर पहले से दावा पेश कर दिया है. :) इससे पहले हम उनकी एक और बड़ी खबर पेश कर रहे हैं. यह खबर बिहार के चीनी उद्योग के पतन के बारे में है. चीनी उद्योग हो या जूट उद्योग दोनों का नाता गांव औऱ खेती किसानी से है. इन दोनों उद्योगों के पतन का असर यहां की किसानी और किसानों की आर्थिक हालत पर पड़ता है. इसलिए गांव और किसानी से जुड़े लोगों को यह समझना जरूरी है कि किस तरह उद्योगों का बना बनाया ढांचा भरभरा कर गिर जाता है. और एक झटके में लाखों लोग अर्श से फर्श पर आ जाते हैं. यह रपट काफी पहले लिखी गयी है, हो सकता है कई लोगों ने इसे पहले पढ़ा होगा इ-समाद में. मगर वह रिपोर्ट मैथिली में थी. अब यह रपट हिंदी में आपके सामने है. इस रपट के लिए हम सुनील कुमार झा के साथ-साथ नीलू कुमारी और इ-समाद के भी आभारी हैं. रपट पेश है...
एक समय था जब देश के चीनी उत्पादन का 40 फीसदी चीनी बिहार से आता था, अब यह मुश्किल से 4 फीसदी रह गया है। आजादी से पहले बिहार में 33 चीनी मिलें थीं, अब 28 रह गई हैं। इसमें से भी 10 निजी प्रबंधन में चल रही हैं। जिनमें बगहा और मोतिहारी की स्थिति जर्ज़र हो चुकी है। जहाँ सकरी का अस्तित्व मिट चुका है और रैयाम चीनी मिल अपनी दुर्दशा पर आँशु बहा रहा है वहीँ सबसे पुराना लोहट चीनी मिल अपने उद्धारक का इन्तेजार कर रहा है। क्या है बिहार में चीनी मीलों का इतिहास और वर्तमान की शोधपरक रिपोर्ट में पत्रकार नीलू कुमारी और सुनील कुमार झा ने कई पहलूओं और कारणों पर प्रकाश डाला है। यह आलेख निश्चित रूप से आपकी जिज्ञासा शांत करेगा। - समदिया
शर्करा से चीनी तक - चीनी का प्रयोग भारत में कब से हो रहा है ये शायद अभी ज्ञात नहीं हो पा रहा है लेकिन अथर्ववेद और रामायण में एक से कही ज्यादा बार इसका प्रयोग (चीनी शब्द संस्कृत के शर्करा, और प्राकृत के सक्कर शब्द से व्युत्पित हुआ है ) ये दिखाता है की चीनी भारत में करीब ३००० वर्ष पुराना है। मनू, चरक और सूश्रुत संहिता में इसका उल्लेख दवाओं के रूप में किया गया है। मैगस्थनीज और चाणक्य के अर्थशास्त्र (321 से 296 ईपू) में भी इसका उल्लेख है। एक चीनी एनस्कालोपिडिया में यह रिकॉर्ड है की सम्राट ताई सुंग (६२७ से ६५० AD ) के शासनकाल के दौरान चीनी सरकार ने चीनी छात्रो के एक बैच को बिहार भेजा था, ताकि वो गन्ना और चीनी के विनिर्माण की खेती की विधि का अध्यन कर सके। उस वक्त भारत का पूर्वी हिस्सा चीनी उत्पादन में माहारथ हासिल कर चुका था और विदेशों में निर्यात करने लगा था। लेकिन 1453 में इंडोनेशिया पर तुर्क शासन के बाद निर्यात पर अतिरिक्त कर का बोझ बढने से इसके कारोबार पर प्रतिकूल असर पडा। और धीरे धीरे यह कारोबार दम तोड दिया। इधर विदेशों में चीनी की मांग बढती रही।
नील से ईख तक का सफर - 1792 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने विदेशो में उठ रही चीनी की माँग को देखते हुए अपना एक प्रतिनिधि मंडल भारत भेजा। चीनी उत्पादन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए लुटियन जे पीटरसन के नेतृत्व में भारत आया प्रतिनिधिमंडल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बंगाल प्रसिडेंसी के तिरहुत ईलाके में न केवल जमीन उपयुक्त है, बल्कि यहां सस्ते मजदूर और परिवहन की सुविधा भी मौजूद है। उस वक्त यह ईलाका नील की खेती के लिए जाना जाता था। इस रिपोर्ट के आने के बाद नील की खेती में मुनाफा कम देख ईलाके के किसान भी ईख की खेती को अपनाने लगे। इधर, ईख पैदावार के साथ ही 1820 में चंपारण क्षेत्र के बराह स्टेट में चीनी की पहली शोधक मिल स्थापित की गयी। मिस्टर स्टीवर्ट की अगुवाई में 300 टन वाले इस कारखाने में ईख रस से आठ फीसदी तक चीनी का उत्पादन होता था। यहां उत्पादित चीनी तिरहुत ईलाके के लोगों को देखने के लिए भी नहीं मिलता था और सारा माल पंजाब समेत पश्चिमी भारत में भेज दिया जाता था। 1877 आते आते पश्चिमी तिरहुत के 5 हजार हैक्टेयर वाली नील की खेती सिमट कर 1500 हैक्टेयर में रह गयी और 2 हजार हैक्टेयर में ईख की खेती शुरू हो गयी। 1903 आते आते ईख ने तिरहुत से नील को हमेशा के लिए विदा कर दिया।
आधुनिक चीनी मिलों का आगमन- तिरहुत का र्ईलाका परिस्कृत चीनी का स्वाद 19वीं शताब्दी में चख पाया, जब यहां चीनी उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ। १९०३ से तिरहुत में आधुनिक चीनी मिलों का आगमन शुरू हुआ। 1914 तक चंपारण के लौरिया समेत दरभंगा जिले के लोहट और रैयाम चीनी मिलों से उत्पादन शुरू हो गया। 1918 में न्यू सीवान और 1920 में समस्तीपुर चीनी मिल शुरू हो गया। इस प्रकार क्षेत्र में चीनी उत्पादन की बडी ईकाई स्थापित हो गयी, लेकिन सरकार की उपेक्षा के कारण इसका तेजी से विकास नहीं हो पाया। प्रथम विश्व युद्ध के समय इनकी कुछ प्रगति अवश्य हुई, लेकिन ये विदेशी प्रतियोगी के आगे टिकी नहीं । 1929 तक भारत में यह कारोबार संकटग्रस्त हो गया और देश में चीनी मीलों की संख्या घटकर सिर्फ 32 रह गयी, जिनमें पांच तिरहुत क्षेत्र से थे।
संरक्षण का उठाया फायदा – तिरहुत चीनी उद्योग की यह अवस्था नहीं हुई होती यदि 1920 की चीनी जाँच समिति द्वारा इसके संरक्षण की सिफारिस की गई होती। बाद में सम्राजीय कृषि गवेषणा परिषद् ने ईख उत्पादकों के हितो की रक्षा के लिए चीनी उद्योग को संरक्षण देने की सिफारिश की। फलतः 1932 में पहली बार 7 वर्षो के लिए इस उद्योग को संरक्षण दिया गया। तिरहुत ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया और यहां जिस तीव्रता से इस उद्योग का विकास हुआ वह संरक्षण की सार्थकता को सिद्ध करता है। चार वर्ष के भीतर ही चीनी मीलों की संख्या 7 से बढ़कर 17 हो गयी। चीनी का उत्पादन 6 गुना बढ़ गया, आयात किये गए चीनी यंत्रों का मुल्य 8 गुना बढ़ गया। संरक्षण प्रदान करने के 6 वर्ष के भीतर ही चीनी आयात में साढ़े आठ करोड़ रूपये की कमी हो गयी और केवल 25 लाख रूपये के चीनी का आयत भारत में किया गया। चीनी कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला लाभांश जो 1923 और 31 के बीच औसतन 11.2% था बढ़कर 1932 में 19.5% हो गया और 1934 में 17.2% हो गया।
चीनी मामले में आत्म निर्भर – 1937 में चीनी प्रशुल्क बोर्ड ने चीनी उद्योग को दो साल और संरक्षण देने की सिफारिश की। बोर्ड की सिफारिश मंजूर होने के बाद तिरहुत में चीनी की बढती उत्पादकता से 1938 -39 में भारत ना केवल चीनी के मामले में आत्मनिर्भर हो गया था, अपितु अतिरिक्त उत्पादन भी करने लगा था। उद्योग को दिया गया संरक्षण इसका प्रमुख कारण था। दूसरा कारण ये भी था कि दूसरे विश्व युद्ध के कारण कच्चा माल तथा यंत्रों की लागत अत्यंत कम हो गयी थी जो इस उद्योग के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ। लेकिन 1937 में विश्व के 21 प्रमुख चीनी उत्पादक देशो में हुए एक अंतरराष्ट्रीय समझौते से संरक्षण का लाभ प्रभावित हुआ। इस समझौते में निर्यात का कोटा तय हुआ और वर्मा को छोड़कर समुद्र के रास्ते अन्य किसी भी देश में चीनी का निर्यात करने के लिए भारत पर 5 वर्षो के लिए रोक लगा दी गयी। इसके कारण 1942 तक बिहार सहित पूरे भारत में अति उत्पादकता की समस्या पैदा हो गयी। इसलिए कई चीनी मिले निष्क्रिय हो गयी।
आधिपत्य को लेकर बढा तनाव – चीनी की अधिकता से उत्पन्न परिस्थिति का सामना करने के लिए चीनी उत्पादकों ने चीनी संघ की स्थापना की, ताकि चीनी के मूल्य के ह़ास को रोका जा सके। यह संघ अपने सदस्य कारखानों के द्वारा चीनी के बिक्री को सुनिश्चित करने लगा। 1966-67 तक बिहार के निजी मिल मालिकों ने चीनी कंपनियों पर पूरी तरह अपना कब्जा जमा लिया और ऐसी नीति अपनाने लगे ताकि चीनी पर से सरकार का नियत्रण पूर्ण रूप से खत्म हो जाये। इस कारण चीनी मीलों पर मालिकों और सरकार के बीच टकराव बढने लगे। 1972 में केंद्र सरकार द्वारा चीनी उद्योग जाँच समिति की स्थापना की। चीनी उद्योग की स्थिति और समस्या की जांच कर यह समिति 1972 के आखिरी सप्ताह में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। समिति ने सरकार को चीनी कारखानों का अधिग्रहण करने का सुझाव दिया। फलस्वरूप 1977 से 85 के बीच 15 से ज्यादा चीनी मिलों का अधिग्रहण बिहार सरकार ने किया। इसमें समस्तीपुर (समस्तीपुर शुगर सेन्ट्रल शुगर लिमिटेड ), रैयाम ( तिरहुत कोपरेटिव शुगर कंपनी लिमिटेड ), गोरौल( शीतल शुगर वर्क्स लिमिटेड), सिवान ( एस.के.जी. शुगर लिमिटेड), गुरारू ( गुरारू चीनी मिल), न्यू सिवान ( न्यू सिवान शुगर एंड गुर रिफ़ाइनिग कम्पनी), लोहट ( दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड), बिहटा ( साउथ बिहार शुगर मिल लिमिटेड), सुगौली( सुगौली शुगर वर्क्स लिमिटेड), हथुआ ( एस.के.जी. शुगर लिमिटेड), लौरिया ( एस.के.जी. शुगर लिमिटेड), मोतीपुर ( मोतीपुर शुगर फेक्टरी ), सकरी ( दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड), बनमनखी ( पूर्णिया कोपरेटिव शुगर फेक्टरी लिमिटेड), वारिसलीगंज (वारिसलीगंज कोपरेटिव शुगर मिल लिमिटेड), का अधिग्रहण किया गया।
और बढती गयी मीलों की दुर्दशा - इन मिलों को चलाने के लिए बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड की स्थापना 1974 ई० में हुई थी, जो चीनी मिलो के घाटे को नियत्रित कर इसे सुचारू रूप से प्रबंधन करने का काम करता, लेकिन इनमें से ज्यादातर इकाई कीमतों में गिरावट और इनपुट लागत में वृद्धि के दवाब को नहीं झेल सकी। फलस्वरूप एक के बाद एक यूनिट बंद होते चले गये। 1996-97 के पेराई सीज़न के बाद इसको पुनर्जीवित करना बंद हो गया और सारी इकाई बंद पड़ गये। घाटे का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन इकाइयों पर किसानो का 8.84 करोड़ रुपया और कर्मचारियों का 300 करोड़ रुपया बकाया था। 1990 आते आते तिरहुत के ईख की खेती कुछ जिलों तक सिमट कर रह गयी और हजारों हैक्टेयर में गेहूं की खेती शुरू हो गयी। 1997 आते आते गेहूं ने तिरहुत से ईख को नकदी फसल के रूप में विदा कर दिया। सरकार ने रखे हथियार - फरवरी 2006 में बिहार सरकार आखिरकार हथियार रख दिये और यह स्वीकार कर लिया कि वो बंद मिलों को चलाने में असमर्थ है। 1977 में चीनी मिलो के घाटे को नियत्रित कर इसे सुचारू रूप से प्रबंधन करने का दावा झूठा साबित हुआ। मिलों को फिर से चालू करने के लिए सरकार ने गन्ना विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय बैठक बुलायी। इसमें समिति ने राय दी कि बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड के बंद पड़े चीनी मीलों को पुनर्जीवित करने के लिए एक वित्तीय सलाहकार को नियुक्त किया जाय, जो इन बंद पड़े चीनी मिलो के पुनरुद्धार के लिए कोई सटीक योजना बना सके। इसके तहत एसबीआई कैपिटल को यह काम सौंपा गया। समिति ने अंततः इन इकाइयों के लिए निविदा आमंत्रित करने का फैसला किया और निजी निवेशको आमंत्रित किया कि वो इन बंद पड़े चीनी मिलो को पुनरुद्धार / पुनर्गठन / लीज़ पर ले सके। शुरुआत से ही निवशकों की दिलचस्पी ना के बराबर रही। पिछले साल भी दिसंबर में टेंडर भरने के आखिरी दिन तक तीन चीनी मिलों के लिए सिर्फ छह आवेदन ही मिले हैं।
पुनरुद्धार के नाम पर मिट गया अस्त्तिव - एसबीआई कैपिटल ने परिसंपत्तियों का मूल्यनिर्धारण, परिचालन और वित्तीय मापदंडों के आधार पर बिहार सरकार को एक संक्षिप्त रिपोर्ट दिया। इसके अनुसार बंद पड़ी १५ मीलों में से १४ मीलों को ही केवल फिर से चलाने का सुझाव दिया जबकि सकरी मिल को विलोप करने की बात कही गयी समिति के अनुसार लोहट और रैयाम के बीच स्थित होने के कारण इस मिल के लिए गन्ना अधिकार क्षेत्र उपलब्ध नहीं सकता है। अतः इसके ११५ एकड़ जमीन को किसी अन्य कार्य के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। लोहट के मुनाफे से १९३३ में स्थापित ७८२ टीएमटी क्षमता वाले इस मिल के वजूद को खत्म कर दिया गया। इस प्रकार बिहार के चीनी मीलों के इतिहास में सकरी पहली इकाई रही जो केवल बंद ही नहीं हुई बल्कि उसे हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया। सरकार के इस पहल से ऐसा भी नहीं की अन्य मिलें पुनर्जीवित हो गयी सकरी और रैयाम को महज़ 27.36 की बोली लगाकर लीज़ पर लेने वाली कंपनी तिरहुत इंडस्ट्री ने नई मशीन लगाने के नाम पर रैयाम चीनी मिल के सभी साजो सामान बेच चुकी है। २००९ में २०० करोड़ के निवेश से अगले साल तक रैयाम मिल को चालु कर देने का दावा करने वाली यह कम्पनी मिल की पुरानी सम्पति को बेचने के अलावा अब तक कोई सकारात्मक पहल नहीं कर सकी। वैसे बिहार सरकार ने अब तक कुल ५ मीलों को निजी हाथों में सौंपा है जिनमे से केवल दो सुगौली और लौरिया चीनी मिल एक बार फिर चालू हो पाई है जबकि रैयाम और सकरी मीलों का भविष्य निजी हाथों में जाने के वाबजूद अंधकारमय है।
इथेनॉल ने बढा दी मुश्किल - निवेशकों की रुचि चीनी उत्पादन में कम ही रही, वे इथेनॉल के लिए चीनी मिल लेना चाहते थे, जबकि राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं रहा। क्योंकि 28 दिसंबर, 2007 से पहले गन्ने के रस से सीधे इथेनॉल बनाने की मंजूरी थी। उस समय बिहार में चीनी मिलों के लिए प्रयास तेज नहीं हो सका, जब प्रयास तेज हुआ तब दिसंबर, 2007 को गन्ना (नियंत्रण) आदेश, 1996 में संशोधन किया गया, जिसके तहत सिर्फ चीनी मिलें ही इथेनॉल बना सकती हैं। इसका सीधा असर बिहार पर पड़ा है। मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं। ऐसे में बंद चीनी मिलों को चालू करा पाना एक बड़ी चुनौती आज भी है। जानकारों का कहना है की राज्य सरकार पहले पांच साल के कार्यकाल में निवेशकों का भरोसा जीतने का प्रयास करती रही। अब जब निवेशकों की रुचि जगी है, तब केंद्र ने गन्ने के रस से इथेनॉल बनाने की मांग को खारिज कर राज्य में बड़े निवेश को प्रभावित कर दिया है। जो निवेशक चीनी मीलों को खरीदने के शुरुआती दौर में इच्छा प्रकट की थी वो भी धीरे धीरे अपने प्रस्ताव वापस लेते चले गये।
फिर चाहिए संरक्षण – पिछले पेराई मौसम में 5.07 लाख टन के रिकार्ड उत्पादन के बावजूद चीनी मिलों को करीब 250 करोड का घाटा सहना पड रहा है। बिहार में गन्ने से चीनी की रिकवरी की दर 9.5 फीसदी से घटकर 8.92 फीसदी हो गयी है। बिहार में चीनी का उत्पादन मूल्य करीब 3600 प्रति क्विटल है, जबकि चीनी का मूल्य घटकर 2950 प्रति क्विटंल हो गया है। छोआ का दाम राज्य सरकार ने 187 रुपये तय कर रखा है जबकि उत्तरप्रदेश में इसकी कीमत 300 से 325 रुपये प्रति क्विंटल है। इसी प्रकार स्प्रीट की कीमत बिहार में महज 28 रुपये प्रति लीटर है जबकि उत्तरप्रदेश में 33 से 35 रुपये प्रति लीटर है। ऐसे में बिहार शूगर मिल एसोसिएशन ने सरकार से कैश सब्सिडी 17 की जगह 30 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग की है। ऐसे में बिहार के चीनी उद्योग को एकबार फिर संरक्षण की जरुरत हैं। चीनी उद्योग को लेकर बिहार की मीठी यादें यह विश्वास दिलाती है कि आज की कडवी सच्चाई कल एक नयी तसवीर बनकर सामने आयेगी।
साभार - इसमाद.कॉम

1 टिप्पणी:

  1. yadyapi cheenee nahee khane ki salah ham daaktar diya katre hain, yah lekh kafee achchaa shodhparak hai. Mithila ke cheenee milon ki durdashaa na jane kab khatm hogee. Hamre Mithilame har gaon me gud bana karta thas.

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