गुरुवार, 8 जनवरी 2015

बथुआ फिरी है, मगर सरसों, धनिया, खेसारी पर टैक्स है...


इन दिनों गांव से लेकर शहर तक साग का मौसम है. थाली में एक साग न हो तो भोजन प्रेमियों का मन नहीं मानता. शहरों में तो अब मंडी चले जाइये, जो चाहे वही साग उपलब्ध है, मगर गांव में साग हासिल करने के लिए खेत-खेत भटकना पड़ता है. साग का प्रेम सबसे अधिक महिलाओं को होता है, खास तौर पर नवयुवतियों को. वे इस मौसम में पूरे देश खेतों में भटकती रहती हैं, साग पाने के लिए. इससे उन्हें साग तो मिल ही जाता है, लड़कियों की रंग बिरंगी पोशाकें और उन्मुक्त हंसी की वजह से गांवों में बेमौसम बसंत आ जाता है. इसी नजारे को शब्दों में गूंथा है मिथिलेश कुमार राय ने... पढ़कर बताइये कैसा बना है.
हां, तसवीर सांकेतिक है...
मिथिलेश कुमार राय
इन दिनों स्कूलों में छुट्टी के बाद खेतों में लड़कियों का राज हो जाता है. सब्जियों के इस मौसम में गेहूं के खेतों में उगे बथुआ साग और उसके बगल के खेतों में लहलहाते खेसारी साग, सरसों साग उन्हें खूब-खूब आकर्षित करती हैं. स्कूल से आने के बाद लड़कियां खेतों के बीहड़ में उतरने के लिए हड़बड़ाई रहती हैं. कभी-कभी इस झुंड में कोई नव विवाहिता या कोई बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल हो जाती हैं. लेकिन जिस दिन ऐसा होता है उस दिन लड़कियों की मस्ती पर असर पड़ जाता है. पैरों में रस्सी जैसा कुछ उलझ जाता है. क्योंकि वे इन्हें नहर के उस पार नहीं जाने देतीं. चौकीदार बन जाती हैं और आँखें तरेरने लगती हैं. गाँव की भी पाबंदी है. साग ही तो तोड़ने जाना है तो इन खेतों में क्या साग की कमी है कि नहर के पार जाएगी. खबरदार. नहर से इधर ही तोड़कर वापस आ जाएं घर! जबकि लड़कियां पैरों की रस्सी खोल खूब कुलांचे भरना चाहती हैं. नहर के उस पार तक. उस पार जहां तक नजर जाती हैं सिर्फ हरियाली ही हरियाली नजर आती हैं. सुरसरि तक. आँखों को खूब सकून मिलता है. मन को कितनी शांति मिलती है. जोरजोर से हंसो. खूब चिल्लाओ. कोई टोकनेवाला नहीं. अब तो सरसों में भी फूल आने लगे हैं. कितना अच्छा लगता है.
गेहूं के खेतों में दर्जन-दर्जन भर लड़कियां उतरकर बथुआ का साग खोंटने लगी हैं. तभी किसी ने कुछ ऐसा कहा कि हंसी ने बाँध तोड़ दी. वातावरण खिलखिलाने लगा. लेकिन
बुढ़िया ने टोक दिया तो ठहाके पर लगाम लग गयी. यही नहीं सुहाता.
बथुआ खोटते-खोटते लड़कियाँ इधर-उधर देखती हैं और बगल के खेसारी के खेत में छलांग लगा देती हैं. हाथ बढ़ाकर थोड़ा सा धनिया नोच लेती हैं. सरसों का पत्ता भी एक-आध मुट्ठी तोड़ लेती हैं. लेकिन तभी दूर से एक आवाज आती है. यह खेत मालिक की आवाज है. जिसे सुनकर लड़कियाँ दौड़कर फिर बथुआ खोंटने बैठ जाती है. बथुआ एकदम फ्री है. खेसारी, धनिया, सरसों पर टैक्स लगा है जैसे! लेकिन आँख बचाकर खोटने से कौन रोक सकता है भला! खोंइछा में नीचे खेसारी और ऊपर बथुआ. पकड़े जाने पर दूर से खोंइछा में पड़ा बथुआ दिखाकर खिलखिलाती हुई घर की ओर दुलक पड़ती हैं.
बथुआ चंगेरा में डालकर घर के छप्पर पर रात भर शीत में और खेसारी पकाकर सुबह तक बासी होने के लिए छोड़ दिया गया है. बासी खेसारी और अदरकवाला बथुआ का कोई जवाब नहीं. ऊपर से धनिया की चटनी. फिर भात हो या रोटी-पेट भर जाता है, मन नहीं भरता !

5 टिप्‍पणियां:

  1. Ahahahaha...hare makkhan jaisa bathua ka saag USNA chaval me saan kar aur upar se hariyar mirchai aur lahsun dal kar dhaniya ki chatni...dopahar ke is bhajan ke baad ke suroor me kavita ne pahunch diya. Sashareere swarg gaman.

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  2. साग नाम सुनते ही पेट में आग सी मच गई

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  3. मिथिलेश कुमार राय की लेखनी की खाशियत है कि उनके शब्द ही ग्राम्य-अंचल के चित्र उकेर देते हैं | इस पृष्ठ पर आकर आँखों में सुकून ठहर-सा गया है |

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