बुधवार, 7 जनवरी 2015

गांव से ही तो मिलता है साहित्य का खाद-पानी - रवींद्र नाथ ठाकुर


यह कथा मैथिली के एक बड़े कवि, गीतकार और फिल्मकार रवींद्रनाथ ठाकुर की है, जिन्हें हाल में ही प्रबोध सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है. जिंदगी भर महानगरीय दुनिया में संघर्ष करने के बाद जीवन संध्या गुजारने इन दिनों वे अपने गांव धमदाहा में रह रहे हैं, कहते गर्व होता है यह मेरा भी गांव है. रवींद्र को गांव के लोग लड्डू बाबू कहकर पुकारते हैं और साहित्य रसिक मैथिली का मोदक कहते हैं. उनके गीतों का माधुर्य ऐसा है कि कई दफा लोग कहते हैं विद्यापति के बाद मैथिली में कोई मिठास लेकर आया तो वह रवींद्र ही हैं. बहुत जल्द उनकी पूरी रचनावली प्रकाशित होने वाली है. वह क्यों गांव में रहते हैं और उनके लिए गांव की क्या अहमियत है इस मसले पर उन्हें इस आलेख में खुल कर अपने विचार रखे हैं. आपके लिए...
बासुमित्र
प्रबोध सम्मान से सम्मानित होने वाले मैथिली के साहित्यकार, गीतकार, फिल्मकार रवींद्रनाथ ठाकुर महानगरीय राजनीति से दूर अपने गांव धमदाहा में साहित्य साधना में लीन हैं. रवीन्द्र के लिए गांव ही उनकी साधना स्थली है. जहां गावँ में रमे रवीन्द्र साहित्य की नई पारी में जुटे हैं, वहीँ उनके गांव के लोग भी उनकी साहित्य साधना में उनका सहयोग कर रहे हैं. उनके पास दोस्त-यारों से लेकर लोगों की भीड़ लगी रहती है. गांव का जिक्र आते ही रवीन्द्र कहते हैं की उनकी प्रेरणा का स्त्रोत गांव ही है. अगर गांव न होता तो लेखक ही नहीं होता. गांव आकर मानो मैं अपने आप को जीने लगता हूँ. एक तो डीह का मोह ऊपर से लेखक कैसे महानगर में बस सकता. गांव ही लिखने की ऊर्जा देती है और गांव ही आपके लिए एक ऐसा संसाधन है जहां आप अपने आप को तराश सकते हैं. इसलिए गांव ही आकर बस गया. या यूं कहें बढ़ती उम्र में अपनी दूसरी पारी की तैयारी गांव आकर कर रहा हूँ. यह कहना है मैथिली के संगीतकार, लेखक, नाटककार औऱ फिल्मकार रवीन्द्र नाथ ठाकुर का.
माँ के कारण गांव लौटा
सालों महानगरीय जीवन जी चुके रवीन्द्र बताते हैं कि बचपन से ही उन्हें गांव प्रिय लगता था. औद्योगीकरण ने हम सब को अलग-अलग बाँट दिया. आजीविका के कारण सब घर से दूर होते चले गये. माँ अकेली गांव में रहती थी. कई बार हम लोगों ने अपने साथ माँ को ले जाना चाहा. पर माँ कहती थी मेरे जाने के बाद अगर दरवाजे पर कोई भिखारी आया और उसे भीख नहीं मिली तो मैं ऊपरवाले को क्या मुंह दिखाउंगी. मेरी माँ डीह और मर्यादा के कारण हमेशा से गावँ में रही. अब माँ के गुजर जाने के बाद मैंने गांव में ही बसने का फैसला किया.
आज भी हैं गांव के दुलारे
वैसे कहूं तो गावँ में लोगों ने हमेशा से काफी ज्यादा सम्मान दिया. उनको मुझ पर पूरा भरोसा था. जब भी कोई किताब आती थी या जब भी गांव जाना होता था तो लोग काफी उत्साह से मिलते. वही प्यार आज भी बना हुआ है. सम्मान मिलने की जितनी ख़ुशी गांव में रह कर हो रही है, उतनी ख़ुशी दिल्ली या पटना में रह कर नहीं मिल सकती थी.
बदलते गांव को देख कर होता है दुःख
मेरे लिए विकास का मतलब यह नहीं है कि अपनी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट कर लें. आज गांव न तो शहर बन पाया और न ही गांव के मूल रूप में बचा है, बल्कि यूं कहें कि आधुनिक बनने के चक्कर में शहर के सारे दुर्गुणों को अपने में समेट चुका है. अपने गांव में लड्डू बाबू के नाम से जाने जानेवाले रवीन्द्र के बाल सखा रह चुके हरिवंश झा बताते हैं कि बचपन से ही इनको कविता, नाटक, गीत का शौक था. आज इनके इस मुकाम को देख कर काफी ख़ुशी मिलती है. यह हमारे समाज के लिए सम्मान की बात है. वहीँ गावँ के युवा मनोज झा बताते हैं की अगर यह आज किसी महानगर में बसे होते तो इनको और ज्यादा सम्मान मिला होता. गावँ के समाजसेवी और उनके हमनाम रवीन्द्र जी बताते हैं की कई बार जिन्हें नहीं पता है वह मुझे ही लेखक समझ बैठते हैं. मैथिली साहित्य के महान लेखक हमारे गावँ के हैं और जिस सादगी से वह रहते हैं, उन्हें देख कर आप सहज अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि वह किस मुकाम पर पहुँच चुके हैं.

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