मंगलवार, 6 जनवरी 2015

भूमि अधिग्रहण ‘अध्यादेश’ की जरूरत क्यों पड़ी


नयी सरकार ने जो आनन-फानन में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी कर दिया है, इसकी स्वभाविक तौर पर हर तबके में आलोचना हो रही है. मगर पीके और पाइथागोरस की बहस में यह मुद्दा उतना स्पेस नहीं हासिल कर पाया जितना इसका महत्व था. दुनिया का जो यह नया दौर है उसमें कॉरपोरेट कंपनियों और पूंजीपतियों की निगाह प्राकृतिक संसाधन को कब्जाने पर है. अभी गांव के लोगों के पास अपनी जमीन और अपना आसमान है. मिट्टी और पानी है. मगर इस पर पैसे वालों की निगाह है और सरकार प्रोपर्टी डीलर की भूमिका में है. इसलिए गांव के लोगों को इस मुद्दे पर खास ध्यान देने और भरपूर विरोध करने की जरूरत है. इस अध्यादेश के पक्ष में सरकार के मंत्री अरुण जेटली ने बताया है कि हड़बड़ी क्या थी. आप इस आलेख को पढ़िये औऱ सरकार की मंशा को समझने की कोशिश कीजिये... (मोडरेटर)
अरुण जेटली
31 दिसम्बर 2014 को सरकार ने ‘भूमि अधिग्रहण, पुनव्र्यवस्थापन एवं पुनर्वास में पारदर्शिता और न्यायोचित मुआवजे का अधिकार (संशोधन) अधिनियम 2013’ के कुछ प्रावधानों का संशोधन करने के लिए अध्यादेश जारी किया। 2013 में बने इस कानून को आखिर संशोधित करने की जरूरत क्यों पड़ी और इन संशोधनों का क्या प्रभाव पड़ेगा?
यह बार-बार उल्लेख किया गया है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 अपनी प्रासंगिकता खो चुका है और इसमें संशोधन की जरूरत है। सचमुच ही इसमें संशोधन चाहिए था। इस कानून के मुआवजे के प्रावधान बिल्कुल ही अपर्याप्त हैं और इसलिए इस बात की जबरदस्त जरूरत थी कि उच्च मुआवजे के साथ-साथ पुनर्वास और निपटान पैकेज भी उपलब्ध करवाया जाए। 2013 के कानून में यह सब किया गया था और इसी आधार पर मैं इस कानून का समर्थन करता हूं। फिर भी भूमि अधिग्रहण का प्रावधान करने वाले संसद के 13 कानूनों को इस अधिनियम के चौथे शैड्यूल में डाल दिया गया। 2013 के कानून की धारा 105 ने इन 13 कानूनों को इसके खुद के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त करार दे दिया। इस धारा में यह प्रावधान था कि सरकार अधिसूचना जारी कर सकती है और मुआवजा या पुनर्वास एवं पुनव्र्यवस्थापन से संबंधित कानून के किसी भी प्रावधान को इन मुक्त करार दिए कानूनों पर लागू कर सकती है। लेकिन इस प्रस्तावित अधिसूचना को 30 दिन की अवधि के लिए संसद के सुपुर्द करना होता था और संसद से उम्मीद थी कि वह इसको स्वीकार, अस्वीकार या संशोधित कर सकती है।
अध्यादेश जारी करने की जरूरत इसलिए पड़ी कि इस प्रकार की अधिसूचना संसद के जुलाई-अगस्त 2014 बजट सत्र से पहले दायर की जानी थी और इसके अनुरूप इसकी मंजूरी या नामंजूरी प्राप्त होनी थी। चूंकि 31 दिसम्बर 2014 इस प्रकार की अधिसूचना जारी करने के लिए अंतिम दिन था। इसलिए सरकार ने धारा 105 को संशोधित करने और 2013 के अधिनियम के प्रावधान मुआवजा तथा पुनर्वास एवं पुनव्र्यवस्थापन से संबंधित 13 उन्मुक्त कानूनों पर लागू करने का फैसला किया।
इस प्रावधान के माध्यम से वर्तमान अध्यादेश में यह व्यवस्था की गई है कि यदि इन उक्त 13 उन्मुक्त कानूनों में से किसी के भी अंतर्गत भूमि अधिग्रहण किया गया है तो किसानों को मुआवजे की बढ़ी हुई राशि का भुगतान किया जाएगा। 2013 के कानून की तुलना में भी यह अध्यादेश एक कदम आगे है। इसी कारण सरकार को वर्ष के आखिरी दिन अध्यादेश जारी करने की जल्दी थी क्योंकि ऐसा न करने की स्थिति में 2013 के कानून के अंतर्गत अनुमोदन की जटिल प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अपने कर्तव्यों का वहन ही नहीं कर सकती।
2013 के कानून में अनेक मामलों में अलग-अलग सीमा तक भू-स्वामी की रजामंदी हासिल करने का प्रावधान है। भू-स्वामी द्वारा रजामंदी व्यक्त करने के बाद ही सरकार भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू कर सकती है। इसके बाद कानून में प्रावधान है कि इस भूमि ग्रहण के सामाजिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन करवाया जाए। इससे भी आगे जाते हुए इसमें खाद्य सुरक्षा के संबंध में विशेष प्रावधान है।
ऐतिहासिक रूप में कोई भी भूमि अधिग्रहण स्वायत्त सत्ता की अपनी मर्जी पर निर्भर करता है। सत्ता तंत्र को किसी भी प्रकार के विकास के लिए भूमि की जरूरत होती है। आवास, टाऊनशिप, शहरीकरण, उपनगरीयनकरण, औद्योगीकरण, ग्रामीण व देहाती आधारभूत ढांचा, सिंचाई और भारत की रक्षा के लिए भूमि की जरूरत पड़ती है। यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है। निजी हितों पर व्यापक सार्वजनिक हितों को सदा ही प्राथमिकता देनी होती है।
फिर भी जिस भू-स्वामी को सदा के लिए भूमि से वंचित होना पड़ता है उसे सामान्य से कुछ अधिक मुआवजा देना होता है। अधिग्रहण की अत्यंत जटिल प्रक्रिया के कारण भूमि अधिग्रहण केवल मुश्किल ही नहीं बल्कि लगभग असंभव हो गया है जिससे भारत का विकास आहत हो रहा है। जब 21वीं शताब्दी में 1894 में बने कानून का संशोधन किया जाता है तो इसमें 21वीं शताब्दी के अनुरूप ही मुआवजे का प्रावधान चाहिए और साथ ही 21वीं शताब्दी की विकास जरूरतों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा संशोधन समाज की विकास जरूरतों की पूरी तरह अनदेखी नहीं कर सकता।
मौजूदा संशोधन में 5 ऐसे अपवादों के लिए भी गुंजाइश रखी है जिन पर अधिग्रहण की जटिल प्रक्रिया लागू नहीं होगी। फिर भी मुआवजे के प्रावधान में कोई बदलाव नहीं होगा। इन 5 अपवादित उद्देश्यों की चर्चा नीचे की गई है-
*भारत की रक्षा व सुरक्षा को अपवादित उद्देश्य करार दिया गया है। 2013 के कानून में इस प्रावधान की पूरी तरह अनदेखी की गई थी।
*विद्युतीकरण सहित देहाती आधारभूत ढांचा भी अपवादित उद्देश्यों में शामिल होगा। सड़कों, राजमार्गों, फ्लाईओवर, विद्युतीकरण और सिंचाई से किसानों की जमीन का मूल्य बढ़ेगा। यह अपवाद पूरी तरह ग्रामीण भारत के हित में है।
*गरीब लोगों के लिए घर और सस्ते आवास भी अपवादित उद्देश्य है। देहाती क्षेत्रों से शहरों की ओर आबादी का बहाव और उपनगरीय क्षेत्रों में रोजगार के मौके एक वास्तविकता हैं। इस अपवाद से उन लोगों को लाभ होगा जो ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन करते हैं।
*औद्योगिक कॉरीडोर जो विभिन्न राजमार्गों के साथ-साथ दूर तक एक संकरी पट्टी के रूप में फैले हुए हैं संबंधित देहाती क्षेत्रों के समग्र विकास को बढ़ावा देते हैं। दिल्ली, मुम्बई औद्योगिक कॉरीडोर को उन हजारों गांवों के लिए लाभदायक होगा जो राष्ट्रीय राजमार्गों के दोनों ओर बसे हुए हैं। ग्रामीण लोगों के लिए इससे भला बेहतर मौका क्या हो सकता है कि उनके अपने ही खेतों के करीब औद्योगिक कॉरीडोर स्थित हो। इससे जहां उनकी भूमि का मूल्य बढ़ेगा वहीं रोजगार के मौके भी पैदा होंगे।
*आधारभूत ढांचा और सामाजिक अधोसंरचना परियोजनाएं (इनमें वह पी.पी.पी. परियोजनाएं भी शामिल हैं जिनमें भू-स्वामित्व विभिन्न सरकारों के पास रहता है)। इससे पूरे देश को और खास तौर पर उन ग्रामीण क्षेत्रों को लाभ होगा जहां न तो कोई आधारभूत विकास ढांचा है और न ही पर्याप्त सामाजिक अधो-संरचना।
लगभग इन सभी अपवादित उद्देश्यों से ग्रामीण भारत लाभान्वित होगा। इनसे भूमि का मूल्यवर्धन होगा, रोजगार के मौके पैदा होंगे और ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर आधारभूत ढांचा तथा सामाजिक अधो-संरचना उपलब्ध होगी। यह लाभ उक्त 13 अपवादित कानूनों को भी अध्यादेश की परिधि में लाने के फलस्वरूप मिलने वाले बढ़े हुए मुआवजे और पुनर्वास एवं निपटान प्रावधानों के अतिरिक्त होंगे।
इसलिए यह संशोधन भारत की, खासतौर पर ग्रामीण भारत विकास जरूरतों को संतुलित करते हुए भू स्वामियों को अधिक मुआवजे का प्रावधान करता है। जो पाॢटयां इस अध्यादेश का विरोध करती हैं क्या उनके द्वारा शासित राज्यों की सरकारें सार्वजनिक रूप में ऐसी घोषणा करेंगी कि वे समाज की, खासतौर पर इसके गरीब और कमजोर वर्गों की, विकास जरूरतों को संतुलित करने के साथ-साथ देश की रक्षा जरूरतों का संज्ञान लेते हुए अधिक मुआवजा उपलब्ध करवाने वाले इस कानून का उपयोग नहीं करेंगी?
2013 के अधिनियम की इबारत में ही 50 से अधिक गलतियां थीं। इन गलतियों को ठीक करने के लिए अलग से प्रावधान किया गया। कुछेक को तो अध्यादेश के माध्यम से सुधारा जा रहा है। पूर्ववर्ती प्रावधान निश्चय ही नुक्सदार था जिसमें यह दर्ज था कि अनोपयुक्त भूमि अधिग्रहण के 5 वर्ष के बाद भू-स्वामियों को वापस करनी होगी। रक्षा, उद्योग, विज्ञान, सिंचाई, राजमार्ग इत्यादि से संबंधित परियोजनाएं और औद्योगिक कॉरीडोर, स्मार्ट सिटी, डाऊनशिप, व्यावसायिक इत्यादि अनेक वर्षों में पूरे होते हैं। 5 वर्ष में तो इनको खड़े भी नहीं किया जा सकता। यदि पूर्व प्रावधान को निष्प्रभावी नहीं किया जाता तो अनेक परियोजनाएं नुक्सदार कानून के कारण ही अधर में लटकी रह जातीं।
2013 के कानून में तो बहुत जोर- शोर से यह प्रावधान किया गया था कि अधिगृहीत भूमि का किसी निजी शैक्षणिक संस्थान या अस्पताल के लिए उपयोग नहीं हो सकेगा। तो क्या नए स्मार्ट सिटी अस्पतालों व स्कूलों के बिना ही अस्तिव में आएंगे? अब अध्यादेश में प्रावधान किया गया है कि अधिगृहीत भूमि पर अस्पताल व शिक्षण संस्थान भी बन सकेंगे।
आधुनिक राष्ट्रीय रूप में विकसित हो रहे भारत को संतुलित पहुंच की जरूरत है। भू-स्वामी के साथ भी न्याय होना चाहिए और इसके समानांतर ही विकास जरूरतों का भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। दोनों में से कोई बात भी एक-दूसरे कीमत पर नहीं हो सकती। संशोधित अध्यादेश व्यापक परामर्श पर अधारित है और विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों की सरकारों ने इसके किए गए बदलावों को समर्थन दिया है। जो इसका विरोध कर रहे हैं, वे निश्चय ही यह प्रभाव पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी पार्टी की सरकारें इस अध्यादेश के प्रावधानो को उपयुक्त नहीं करेंगी। प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद के इस दौर में ऐसे राज्य अवश्य ही पिछड़ जाएंगे और इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा।
पंजाब केसरी से साभार

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