शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

बांबे लैब में बंधक पड़ी है मैथिली की पहली फिल्म


बासुमित्र
मैथिली कवि, गीतकार और फिल्मकार रवींद्रनाथ ठाकुर को प्रबोध साहित्य सम्मान मिलने की घोषणा होते ही मैथिली की पहली फीचर फिल्म ममता गाबए गीत चर्चा में आ गयी है. यूं तो मैथिली भाषा में अब तक बहुत कम फिल्में बनी हैं, मगर गीतों की मधुरता के कारण यह फिल्म मैथिली भाषियों के दिलोदिमाग में हमेशा बरकरार रही है. हालांकि लोगों को इस फिल्म को देखने का मौका कम ही मिला है. रिलीज के वक्त भी इसका ठीक से प्रदर्शन नहीं हो पाया था. अब चौंका देने वाली सूचना यह आ रही है कि यह फिल्म किराया नहीं चुका पाने की वजह से बांबे लैब में बंधक पड़ी है.
किराये के चार लाख रुपये नहीं चुकाये गये हैं
फिल्म के गीतकार और अब इसके आधिकारिक स्वामी रवींद्रनाथ ठाकुर की पुत्री सारिका ठाकुर के मुताबिक यह फिल्म बांबे स्टूडियो में है. जहां का किराया 4 लाख से अधिक हो गया है. अब अगर आज की तारीख में मैथिली प्रेमी इस फिल्म को देखना चाहते हैं तो सबसे पहले बांबे लैब का किराया चुकाना पड़ेगा तभी इसे हासिल कर सकते हैं. इसके अलावा रील नं. 13 की हालत भी ठीक नहीं है, अगर समय रहते इस फिल्म का डिजिटलाइजेशन नहीं करवा लिया गया तो इस फिल्म को बचा पाना भी आसान नहीं होगा.
डिजिटलाइजेशन के लिए लगेंगे पांच लाख रुपये
बताया जाता है कि इस फिल्म को संरक्षित करने का कुल व्यय 8 से 9 लाख रुपये का है, जिसमें बांबे लैब का किराया और इसके डिजिटलाइजेशन का खर्च दोनों शामिल है. इस खर्च के लिए राशि उपलब्ध नहीं होने के कारण फिल्म के भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है. अगर एक बार इस फिल्म का डिजिटलाइजेशन हो जाये तो न सिर्फ फिल्म हमेशा के लिए सुरक्षित हो जायेगा बल्कि पूरे मैथिली समाज के लिए आसानी से उपलब्ध भी हो पायेगी. लोग अपनी भाषा की बनी पहली फिल्म का आनंद भी ले पायेंगे. मगर फिलहाल ऐसा हो पाना मुश्किल ही लगता है. क्योंकि फिल्म के आधिकारिक स्वामी रवींद्रनाथ ठाकुर जो मध्यवित्त हैसियत के स्वामी हैं के लिए एक साथ इतनी राशि खर्च कर पाना मुमकिन नहीं है. ऐसे में सरकार या समाज की ओर से पहल ही इस फिल्म का जीवन बचा सकती है.
रोचक है निर्माण की कथा
इस फिल्म के निर्माण की कथा भी काफी रोचक और संघर्षपूर्ण है. एक जमींदार के पुत्र और एक नौकरानी की पुत्री के प्रेम पर बनने वाली इस फिल्म के निर्माण में 18 साल लग गये थे. फिल्म की शूटिंग मधुबनी जिले के राजनगर स्थित राजमहल परिसर में 1962-63 हुई थी. मगर इसे परदे तक आने में दशकों का समय लग गया. पहले तो फिल्म के निर्माता मोहन महंत दास थे, मगर बाद में फिल्म के गीतकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस फिल्म को रिलीज कराने का बीड़ा उठाया. दशकों पुराने फुटेज को जोड़ कर और उसकी नये सिरे से डबिंग कर उन्होंने फिल्म को रिलीज करने लायक बनाया. इस बीच में मैथिली की दो फिल्में रिलीज हो चुकी थीं. फिल्म रिलीज हुई तो इसके प्रदर्शन के लिए टॉकिज नहीं मिल रहे थे. ऐसे में रवींद्रनाथ ठाकुर ने सिनेमा हॉल का अस्थायी लाइसेंस अपने नाम से लिया और पटना में अस्थायी सिनेमा हाल में इसका प्रदर्शन कराया. सिने इतिहास में ऐसी घटना शायद ही कभी हुई होगी.
अबारा नहितन
फिल्म के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि इसके सहनिर्माता केदारनाथ चौधरी ने इसके निर्माण के प्रसंगों को लेकर एक संस्मरणात्मक पुस्तक मैथिली में लिखी है. अबारा नैहनत नामक इस पुस्तक का प्रकाशन 2012 में हुआ. जिसे इसकी रोचक शैली की वजह से लोगों ने काफी पसंद किया है. फिल्म के गीत इसकी जान हैं, खास तौर पर सुमन कल्याणपुर का गाया भरि नगरी में शोर... और गीता दत्त का गाया अर्र बकरी घास खो... आज तक मैथिली भाषियों की जुबान पर रहता है. फिल्म के निर्देशक सी परमानंद का पिछले हफ्ते निधन हो गया है. एक और दिलचस्प जानकारी यह है कि भोजपुरी की पहली फिल्म गंगा मइया तोहरे पियरि चढ़इबो और इस फिल्म का निर्माण एक ही साल शुरू हुआ था, वह भी बांबे लैब से ही. इस बीच भोजपुरी सिनेमा कहां से कहां चला गया, मैथिली सिनेमा इतने सालों में अपनी पहचान तक नहीं बना पायी है.
यू-ट्यूब पर मौजूद हैं गाने
भले ही मैथिली की पहली फ़िल्म "ममता गाबय गीत" आज की पीढ़ी ने नहीं देखी हो. अर्थ के अभाव में फ़िल्म बॉम्बे फ़िल्म लैब में रखी-रखी खराब हो रही हो. लेकिन आज भी ममता गाबए गीत के गाने युवा पीढ़ी यू ट्यूब पर देख सुन रहे हैं. फ़िल्म को आम दर्शकों तक पहुंचाने वाले रविन्द्र नाथ ठाकुर के लिए आज भी फ़िल्म से भवनात्मक लगाव कम नहीं हुआ है. फ़िल्म का जिक्र आते ही लगता है की वे आज भी फ़िल्म के सेट पर ही मौजूद हैं. आप उनके आखों की चमक से ही अंदाजा लगा सकते है. रविन्द्र जी फ़िल्म निर्माण से जुड़ी कई रोचक घटनाएं सुनाते हैं.
गीतकार के रूप में फ़िल्म से जुड़े थे
वे बताते हैं की सन् 1963-64 में जब एम.ए में पढ़ाई कर रहा था, उसी समय फ़िल्म के लिए गाने लिखने का ऑफर मिला था. काफी पसोपेश में पड़ गया कि क्या किया जाये. काफी सोचने के बाद तय किया, प्रोफेसर तो कभी बना जा सकता है लेकिन पहली फिल्म का हिस्सा बनने का मौका बार-बार नहीं मिल सकता. पढ़ाई छोड़ कर फ़िल्म निर्माण का हिस्सा बन गया.
मिला था लीड रोल का ऑफर
गाने लिखने के साथ-साथ उन्हें फ़िल्म के मुख्य किरदार "प्यारे मोहन साह" का रोल ऑफर किया गया था. प्यारे मोहन को एक सीन में हल जोतना था. फ़िल्म में अभिनय की इजाजत लेने घर पहुँचा. पिता जी को जब सारी बात सुनाई, तो उन्होंने कहा की चाहे मामला फ़िल्म का हो जोतोगे तो हल ही न. उस वक्त ब्राह्मणों का हल छूना वर्जित माना जाता था. इसलिए पिता जी ने रोल करने से मना कर दिया.
पहली बार मिथिला देश की परिकल्पना
फ़िल्म के गाने लिखने के दौरान मुम्बई में उदय भानू सिंह ने कहा की मैथिली की पहली फिल्म बन रही है. इसमें एक गाना मिथिलांचल की विशेषता पर होना चाहिये. उस समय एक गाना "कहु भैया रामे-राम, मैया बिराजे मिथिला देश मे"लिखी जिसे महेंद्र कपूर जी ने अपनी आवाज दी थी. उसी गाने से हमलोगों ने पहली बार मिथिला देश की कल्पना की थी.
रिलीज होने में लगे 18 साल
अगर देखा जाय तो यह किसी रिकॉर्ड से कम नहीं है. "मुगले आजम "17 साल के बाद दर्शकों के पास पहुंची थी. वहीं बहुत सारी परेशानी के बाद 18 साल के बाद "ममता गाबए गीत" रिलीज हो सकी.
न मिला वितरक न मिला हॉल
18 साल बाद रिलीज होने के कारण से फिल्म की विषय और तकनीक दोनों पुरानी हो चुकी थी. फिल्म रिलीज होने के बाद प्रदर्शन के लिये न कोई वितरक मिल रहा था और न कोई हॉल अब हम लोग काफी निराश हो चुके थे.
खुद बने वितरक और हॉल मालिक
वे कहते हैं, फिल्म रिलीज होने के बाद इसे लोगों तक पहुंचाने को हमलोगों ने इसे अपना जूनून बना लिया. फिल्म के वितरण के लिए हमलोगों ने खुद ही "राज लक्ष्मी"के नाम से वितरण कंपनी बना कर रजिस्ट्रेशन करवाया. ताकि कम से कम बिहार के लोग इस फिल्म को देख सकें.
जब लिया टेम्परोरी लायसेंस
वितरक बनने के बाद भी मुसीबत कम नहीं हुई थी. फिल्म प्रदर्शन के लिये कोई सिनेमा हॉल नहीं मिल रहा था. कोई तैयार नहीं हो रहा था. तब कोलकाता से सिनेमा हॉल का टेम्परोरी लायसेंस लिया. फिल्म को दिखाने के लिए वहीं से प्रोजेक्टर मंगवाया गया था. तब जाकर पटना में इसे लोगों को दिखाया गया.
लोगों ने काफी सराहा
भले ही विषय और तकनीक पुरानी हो गई थी. फिर भी फिल्म के पहले शो के बाद लोगों ने इस प्रयास की काफी सराहना की थी. आज फिल्म के निर्माण से जुड़े अधिकतर लोग नहीं रहे, लेकिन उन सब की याद आज भी मन में वैसे ही ताजा है जैसे मानो अब भी हमलोग सेट पर मौजूद हों.

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