गुरुवार, 8 जनवरी 2015

जानकीपुल: गाँव, विकास और रंगमंच

जानकीपुल: गाँव, विकास और रंगमंच: गाँव के रंगमंच को लेकर एक बड़ा रोचक और दुर्लभ किस्म का संस्मरण लिखा है युवा रंग समीक्षक अमितेश कुमार ने. लम्बे लेख का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत है. आप भी आनंद लीजिये- मॉडरेटर जानकीपुल
शुरूआत हुई थी 2005 में. अपने गांव वाले घर में चोरी होने के कारण ‘बगहा’ (उत्तरप्रदेश और नेपाल से सटा हुआ जो सदानीरा नारायणी नदी जिसे गंडक भी कहते हैं कि किनारे बसा हुआ. एक जमाने में मिनी चंबल के नाम से मशहूर) से अचानक गांव ‘पजिअरवा’ जाना पड़ा. यह भारत के बिहार प्रांत के मोतिहारी जिले के सुगौली प्रखंड में स्थित है जिसमें ग्रामपंचायत भी है. गाँव के लोगों को गर्व है कि पंचायत पजिअरवा के नाम से है. मतदाताओं की अधिकता और तीन में से दो मौको पर बहुलांश की एकजुटता की वज़ह से पंचायती राज की बहाली के बाद एक निवर्तमान मुखिया और एक वर्तमान मुखिया का ताल्‍लुक़ गाँव से ही है. गाँव से हाइवे और रेलवे लाइन छः किलोमीटर की दूरी पर है. बचपन में ट्रेन पकड़ने के लिये नजदीकी हाल्ट धरमिनिया पैदल जाना आना पड़ता था, कभी-कभार बैलगाड़ी रहती. बरसात के चार महीने गाँव टापू बन जाता. कच्ची सड़कों और धान रोपने के लिये तैयार किये खेतों के बीच का फ़र्क़ मिट जाता था. सड़कें अलबत्ता खेतों से ऊंची थीं. जब कभी कोई दुस्साहसी वाहन उसमें फँसता तब उसे निकालना या निकलवाना एक सामाजिक कवायद होती. इसके लिये वाहन बाहर से बुलवाया जाता क्योंकि गांव में एक भी नहीं था. यह वाहन आम तौर पर ट्रैक्टर होता. जीप और उस जैसी चार पहिये वाहन का आगमन दुर्लभ था इसलिये उनका आगमन बच्चों के लिये जश्न था. वाहन की उड़ाई धूल लेने के लिये उसके पीछे देर तक दौड़ते थे.
ट्रैक्टर पर सवार ड्राइवर को कोई भी और कुछ भी सलाह दे सकता था. जैसे दांया कर, हाईड्रोलिक उठाव, हेने काट, होने काट आदि. बच्चे इस तमाशे के भी मुख्य दर्शक थे और युवक हाथ में कुदाल ले कर पांक काटते, पसीना बहाते हुए किसी तरह ट्रैक्टर को निकाल लेते. कच्ची से खड़ंजा, और खड़ंजा से पक्की सड़क कोलतार वाली बन गई है. कुछ गलियों में ढलुआ सड़कें बन गई है जिसे पीसीसी कहते है. होश के गुजरे दो दशक में मेरे द्वारा देखा गया ‘विकास’ यही है. स्कूल, कालेज, की बात मत पूछिये. जहाँ आवागमन का एकमात्र साधन पैदल था, वहाँ तांगा और जीप चलने लगे. धीरे-धीरे टैम्पो तांगे को विस्थापित कर रहे हैं. गाँव के ब्रह्म स्थान से ही जीप या टैम्पो पर बैठकर आप देश-दुनिया की यात्रा पर निकल सकते हैं. बाकी मोबाईल तो घर-घर में है ही. मुआ बिजली भी कुछ दिनों के लिये आयी लेकिन अपने पीछे दो जले ट्रांसफ़रमर छोड़कर दो सालों तक लापता हो गई. फिर अचानक एक दिन लौटी. लोकसभा चुनावों की हवा में ट्रांसफरमर बदला, तार बदले, लेकिन इस आंधी का क्या करे जिसने अचानक आ कर कई खंभे उखाड़ दिये.
घर में हुई चोरी की तफ़्तीश के लिए कई रास्तों का सहारा लिया गया था. पुलिसिया रास्ता भी. इन्क्वायरी के लिये आये जमादार साहब की दो हज़ारी की डिमांड को मैंने आदर्शवाद से व्यवहारवाद की धरातल पर उतर कर मोलतोल के उपरांत पांच सौ में निपटाया.
‘गाड़ी का तेल और पुलिस पार्टी में पांच आदमी का खरचा इतना में कैसे होगा जी?’
अरे सर! मेरेयहां चोरी हुआ है...पापा नहीं हैं ...इतना ही है घर में ... कहां से लाएं ...
इंक्वायरी की औपचारिकता के लिये आये इस दल को देखनेके लिये बिना टिकट दर्शकों की भीड़ जमा हो गई थी. और मेरे द्वारा की गई कमी की भरपाई करने के लिये वे जाते-जाते लोगों के छान-छप्पर से कोहंड़ा- भथुआ (जिससे मुरब्बा या पेठा बनता है) लेते गये. दूसरा रास्ता था ओझा-गुनी वाला. एक साथ ऐसे कितने ओझाओं की ख्याति हमारे पास पहुँच गई जो चोरी करने वाले का एक दम से नाम बता देते थे. इसमें सबसे गुप्त सुझाव देने वाले पड़ोस की एक महिला ने चुपचाप रह कर उपाय करने के लिये कहा और इसके लिये मुझे ‘प्रेम’ की सहायता लेनी थी. प्रेम गाँव में वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी है. गाँव में नाटक, अष्टयाम, अराधना, कीर्तन, होरी इत्‍यादि में उनकी उपस्थिति लाजिमी होती है. वे सधे गायक, पके अभिनेता, जमे नाल वादक और तपे-तपाए संगठनकर्ता हैं. उनको बुलाने के लिये उनके घर गया रात में, तो पता चला वो पड़ोस में हैं. वहाँ पहुँचा तो देखा कुछ लोग इकठ्ठा थे. वहाँ नाटक की भूमिकाओं का बँटवारा हो रहा था और नाटक खेलना तय हो गया था. मैंने प्रेम भाई को बाहर बुला कर अपनी बात कही. उन्होंने भरोसा दिया कि कल सुबह वो मेरे साथ चलेंगे. फिर मेरी बुलाहट अंदर हुई. मुझे भी नाटक में एक भूमिका करने के लिए कहा गया. पहला प्रस्ताव था नायिका का, गाँव के नाटकों में अभी भी पुरुष ही स्त्री की भूमिका करते हैं. इसके लिए लड़कों को मनाना मशक्कत भरा काम होता है. लड़को को भी अभिभावक का डर सताता है, जो बेटों को बेटी बनने के लिये घर से निकालने की धमकी तक देते हैं. गाँव में कई बार ऐसा भी हो चुका था कि पितृ-भय के चलते पुत्र इच्छा रहते भी नायिका की भूमिका नहीं निभा सके थे. आपात स्थिति में किसी और को भूमिका करनी पड़ी थी. मैंने कहा कि इस मनःस्थिति में मैं नायिका का किरदार नहीं कर सकता. लेकिन एक छोटा रोल मुझे दे दीजिये, मैं कर लूँगा. इस तरह नाटक मंडली में मेरा प्रवेश हुआ. मुझे एक फ़ौजी की भूमिका मिली थी जो मेरी काया के अनुकूल नहीं थी. दिन में मैं घर के काम में उलझा रहता और रात में रिहर्सल करता. चोरी की वज़ह से हो रहे तनाव से निबटने का यह एक उपचार भी था.
मेरे गाँव में मुख्यतः पांच टोलें यानी मोहल्ले हैं. एक पुर्वारी टोला, दूसरा पछियारी टोला, तीसरा पोखरा पर, चौथे को केवल टोला कहते हैं और पांचवा बऊधा टोला है. पछियारी टोले में नाटक खेलने वाली दो टीम थी. हमारे टोले के लड़के उसी दो टीमों में अपने संघत के हिसाब से नाटक खेलते थे. उस टोले के लोग हमारे टोले को थोड़ा कमतर मानते हैं और यह पूर्वग्रह उस टोले में निवास करने वाली सभी जातियों का हैं. आखिर गाँव के भूतपूर्व सामंत और ‘दर’बार का वह टोला था, जिसमें एक पोस्ट ऑफ़िस था, पुस्तकालय था, स्कूल था, मंदिर था, माई स्थान था, स्वतंत्रता सेनानी थे, पान दुकानदार थे, पत्रकार थे और एक पूर्वमुखिया भी. हमारे टोले में संपन्न, शिक्षित, नौकरीपेशा लोगों की संख्या कम थी या नहीं के बराबर थी. शक्ति प्रतिष्ठान भी नहीं था, ले दे कर एक मसजिद और कुछ आटा पिसने की चक्कियाँ थी. उस टोले की टीम जब भी नाटक खेलती और पात्र बंटवारा करती तब हमारे टोले के लड़कों को कमतर रोल दिया जाता. अधिकतर नायिका का, नौकर का,बुढे का या अन्‍य हास्य किरदारों का. इस उपेक्षा के प्रतिशोध में टोले के लड़के किताब उस टोले से ले कर आये थे और बुनाद की दुकान पर तराजु छू कर कसम खाई थी कि नाटक होगा. बुनाद की शिक्षा नहीं के बराबर हुई है फिर भी बुलंदआवाज़, साफ़ उच्चारण के साथ भूमिका को याद करने की उसमें जबरदस्‍त क्षमता है. नाटक खेलने की उसकी ललक ने सबको प्रेरित किया था. कसम खा ली गई थी, रोल बंट चुके थे, रिहर्सल शुरू हो गई थी, जो बुनाद की ही झोपड़ी में होती थी. कान से कम सुनने वाली उसकी मां को आखिर क्या फ़र्क पड़ता!
उस वर्ष हम जब चँदा माँगने के लिए गाँव में निकलते तो लोग हमें हतोत्साहित करते थे तो हम तर्क देते कि हम अठारह पात्र हैं और हमारे घरवाले जो कम से कम सौ होंगे हमारा नाटक देखेंगे. अतः हमारे पास दर्शक तो हैं. गाँव में नाट्य दल का नाम रखने का रिवाज़ था. जिसमें ‘नवयुक नाट्य कला परिषद’ के आगे कोई एक नाम जोड़ दिया जाता था. हमने इस परंपरा को तोड़ के अपने दल का नाम रखा ‘अभिरंग कला परिषद’, जिसमें अभिरंग का आशय था अभिनव रंगमंच. नाटक हुआ और क्या जबरदस्त हुआ! ‘कश्मीर हमारा है’ उर्फ़ ‘आतंकवाद को मिटा डालो’.
हमारा गांव मुख्यतः दो टोलों के बीच बंटा हुआ है. गांव में पहले नाटक दोनों टोले के बीचो बीच हुआ करता था, जब वकील बाबा उर्फ़ जयनाथ मिश्र नाटक दल के मुखिया हुआ करते थे. गिरधारी राऊत के घर के आगे, जो गांव के ठीक बीचो बीच था, बहुत बड़ा दालान था. अच्छी खासी जगह थी. बेटों से पोतों के बीच बंटते बंटते अब उस जगह पर इतने घर बन गये है कि जगह सिमटा हुआ दिखाई देता है. लेकिन जमीन देख कर अंदाजा हो जोता है कि नाटकों के लिये कितनी अच्छी जगह रही होगी. वकील बाबा, शायद ओकिल बाबा उच्चारण ठीक होगा, हमारे गांव के आदि नटकिया हैं. उनके बारे में लिखा जाए तो अलग से एक अध्याय लिखना पड़ेगा. मुख्तसर सा परिचय ये है कि पेशे से प्राध्यापक, छोटी कद के हाजिरजवाब, स्फ़ूर्ति से भरे और पंचलाईन के व्यंग्यों के उस्ताद ओकील बाबा गांव में नाटक शुरू करने वाले आरंभिक लोगों में से एक थे. उनकी सक्रियता नाटक को लेकर आज भी बनी रहती है. उनका कहना है कि नचनिया जब नगाड़ा के ताल सुन ली त बैछौने पर काहे ना लेकिन चुतड़ डोलइबे करी. नचनिया से मतलब अभिनेता से ही रहता है. ओकील बाबा के बाद मेरे पिताजी यानी प्रोफ़ेसर साहब के नेतृत्व में नाटक होने लगा तो उन्होंने कभी कभी जगह का बदलाव भी कर दिया जैसे कि हमारे दरवाजे पर ‘जय परशुराम’ हुआ था। जिसमें परशुराम की भूमिका निभाने वाले ने इतनी शिद्दत से अभिनय किया कि आज भी लोग याद करते हैं कि ‘गोविंद जी पशुराम बनलें तो खड़ाऊं के थाप से चौकी तुड़ देले..हां त गज़ब नु रोल कईलक. यारवा!’ . मेरे पिताजी के बाद कमान अमरचंद्र मिश्र ने संभाली तो नाटक को वो अपने टोले में ले गये और अनिल काका के दरवाजे पर, जो गांव के स्कूल के पास है, नाटक होने लगा. उस टोले की टीम भी तभी दो फाड़ हुई जब भूमिका नहीं मिलने की वज़ह से एक रंगकर्मी ने दल तोड़ के कुछ लोगों को तोड़कर और कुछ नये लोगों जिन्हें मौका नहीं मिलता था को जोड़कर अपना दल बना के नाटक खेला. विवाद की तीव्रता और प्रतिद्वंदिता इतनी गहरी हो गई थी कि एक ही नाटक ‘गुनाहों का देवता’ को दोनों दलों ने एक दिन के अंतराल पर खेल दिया. लेकिन अंततः दोनों दल बिखर गया. नाटक मंडलियां केवल मेरे गांव में नहीं बिखर रही थी, जिन गांवों में नाटक होता था, जहां से नाटक के लिये सामग्री आती थी वहां भी खस्ताहाल हो रहा था. बिहार में यही दौर था जब बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप में थी और बड़ी संख्या में आबादी पलायन करने को मजबूर हो गई. गांव में इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के संचालन का जिम्मा जिन युवकों का था वो रोजगार की तलाश में लग गये. सरकारी नौकरी दुर्लभ हो गई जो बहुत परिश्रम से मिलती थी और जिसमें अभिभावक के धन का निवेश भी चाहिये था. जिनके पास यह नहीं था वह निजी नौकरियों की खोज में निकल गये. ऐसे में नाटकों को बंद होना ही था.
'मंतव्य' से साभार

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