गुरुवार, 29 जनवरी 2015

एक तरफ फुकोशिमा तो एक तरफ चुटका


एटॉमिक एनर्जी के जरिये देश को जगमग कर देने का सपना हर शहरी भारतीय को लुभाता है. मगर अगर उनके पड़ोस में एटॉमिक पावर प्लांट खुलने की योजना बन जाये तो क्या वे चैन से रह पायेंगे? खास तौर पर अगर उन्हें फुकोशिमा और चेरनोबिल एटॉमिक प्लांट के हादसों की जानकारी हो? कुछ ऐसा ही पिछले दिनों मध्यप्रदेश के चुटका गांव के लोगों के साथ हुआ. सरकार ने वहां एटॉमिक पावर प्लांट खोलने का फैसला ले लिया था. मगर गांव वालों के मजबूत प्रतिरोध की वजह से प्लांट का मसला खटाई में पड़ गया. चुटका का प्रकरण हमें एटॉमिक पावर प्लांट के असली खतरे की ओर इशारा करता है और साथ ही यह भी बताता है कि भारतीय गांव अब इतने नासमझ नहीं रहे कि इन्हें कोई भी बहलाकर ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा कर दे. यह प्रकरण भारत में परमाणु ऊर्जा के भविष्य की झलक देता है. चुटका गांव के इस अनूठे संघर्ष की कहानी मित्र प्रशांत दुबे ने लिखी है. वह हम यहां पेश कर रहे हैं. इस आलेख के लिए हम तरकश ब्लॉग के आभारी हैं.
प्रशांत कुमार दुबे
चुटका परमाणु विद्युत परियोजना को लेकर सरकारी महकमे, सम्बंधित कंपनी, उसके कर्मचारी और कथित रूप से पढ़ा-लिखा एक वर्ग जानना चाहता है कि सिरफिरे आदिवासी आखिर विकास क्यों नहीं चाहते? रोजगार और विकास की आने वाली बाढ़ की अनदेखी कर ये अपने अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहते हैं? भारत सरकार और जनप्रतिनिधियों के प्रति अहसानमंद होने के बजाए ये लोग उल्टा सरकार को क्यों कटघरे में खड़ा कर रहे हैं?
मध्यप्रदेश के मंडला जिले में दो चरणों में 1400 मेगावाट परमाणु बिजली पैदा करने वाली इस परियोजना की योजना सन् 1984 में बनी थी. इसकी आरंभिक लागत 14 हजार करोड़ रुपए तथा इस हेतु 2500 हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी. अक्टूबर 2009 से केन्द्र सरकार ने इस परियोजना को आगे बढ़ने की अनुमति दे दी है. सरकार इसे 2800 मेगावाट तक विस्तारित करना चाहती है और जिसके चलते 40 गांवों को खाली कराना होगा. इस परियोजना के निर्माण का ठेका परमाणु विद्युत कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (आगे हम इसे कम्पनी कहेंगे) को दिया गया है. सरकार का कहना है इससे स्थानीय लोगों व आदिवासियों को रोजगार मिलेगा. यह एक सस्ती और बढि़या पद्धति है. इतना ही नहीं विस्थापित होने वाले प्रत्येक परिवार को भारत का परमाणु बिजली निगम मुआवजा देगा.
यह बातें तो अनजान शहरी वर्ग को और इस परियोजना के पक्ष में खड़े लोगों को आकर्षित करती हैं. वैसे ठेठ निरक्षर आदिवासी लोग इसके पीछे छिपे उस अप्रत्यक्ष कुचक्र की बात कर रहे हैं। जिसके विषय में ना ही कोई सरकारी व्यक्ति और ना ही कोई सरकारी रिपोर्ट बात कर रही है. आदिवासियों का मानना है कि जब हमारे पास ऊर्जा के दूसरे, सस्ते और नुकसान रहित विकल्प मौजूद हैं तो फिर सरकार आंख मूंदकर परमाणु उर्जा के पीछे क्यों भाग रही है.
आदिवासी जान गए हैं कि परमाणु बिजलीघर से पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक विकिरणीय कचरा पैदा होता है. यूरेनियम से परमाणु ऊर्जा निकलने के बाद जो अवशेष बचता है वह 2.4 लाख साल तक तीव्र रेडियोधर्मिता युक्त बना रहता है. दुनिया में इस कचरे के सुरक्षित निष्पादन की आज तक कोई भी कारगर तकनीक विकसित नहीं हो पाई है. यदि इसे धरती के भीतर गाड़ा जाता है जो यह भू-जल को प्रदूषित और विकिरणयुक्त बना देता है. उनका सवाल है, रूस के चेर्नोबिल और जापान में फुकोशिमा जैसे गंभीर हादसों के बाद तथा अमेरिका जैसे परमाणु उर्जा के सबसे बड़े हिमायती देश द्वारा भविष्य में कोई भी नया परमाणु विद्युत संयत्र लगाने का फैसला तथा पिछले पिछले चार दशकों में अब तक 110 से ज्यादा परमाणु बिजली घर बंद करने के बाद भी हमारी सरकार परमाणु ऊर्जा के प्रति इतनी लालायित क्यों है?
परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के शुरू होने से भारत में अब तक 300 से भी ज्यादा दुघर्टनाएं हो चुकी हैं. लेकिन सरकार ने कभी इनके पूरे प्रभावों के बारे में देश की जनता को कुछ नहीं बताया. हमारे यहां झारखंड की जादुगुड़ा खान से यूरेनियम निकाला जाता है. वहां भी विकिरण के चलते लोगों के गंभीर रूप से बीमार होने और मरने तक की रिपोर्ट हैं. चुटका परमाणु संघर्ष समिति के लोग रावतभाटा और अन्य संयत्रों का अध्ययन करने के बाद जान पाए कि इन संयत्रों के आसपास कैसे जनजीवन प्रभावित हुआ है. संपूर्ण क्रांति विद्यालय बेडछी, सूरत की रिपोर्ट तो और आंख खोल देती है. रिपोर्ट के मुताबिक परमाणु संयंत्रों के आसपास के गांवों में जन्मजात विकलांगता बढ़ी है, प्रजनन क्षमता पर प्रभाव पड़ा है, निसंतानों की संख्या बड़ी है, मृत और विकलांग बच्चों का जन्म होना, गर्भपात और पहले दिन ही होने वाली नवजात की मौतें बढ़ी है. हड्डी का कैंसर, प्रतिरोधक क्षमता में कमी, लम्बी अवधि तक बुखार, असाध्य त्वचा रोग, आंखों के रोग, कमजोरी और पाचन तंत्र में गड़बड़ी आदि शिकायतों में वृद्धि हुई है.
परमाणु विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा, नई दिल्ली के राष्ट्रीय संयोजक, डॉ. सौम्या दत्ता बताते हैं कि कैसे इस परियोजना को लेकर भी सरकार और कम्पनी ने कदम-कदम पर झूठ बोला है या बहुत सारी बातों और चिंताओं को सार्वजनिक नहीं किया है. अव्वल तो यही कि कंपनी के निर्देशों के अनुसार परमाणु विद्युत परियोजनाओं को भूकंप संवेदी क्षेत्र में स्थापित नहीं किया जा सकता है. फिर भी राष्ट्रीय पर्यावरण अभियंत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर द्वारा तैयार जिस रिपोर्ट पर जन-सुनवाई रखी गई थी, उस रिपोर्ट में भूकंप की दृष्टि से उक्त क्षेत्र के अतिसंवेदनशील होने के तथ्य को छुपाया गया है, जबकि मध्यप्रदेश सरकार की आपदा प्रबंधन संस्था, भोपाल द्वारा मंडला और जबलपुर को अतिसंवेदनशील भूकंपसंवेदी क्षेत्र घोषित किया है. उल्लेखनीय है कि 22 मई, 1997 को इसी क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 6.4 तीव्रता का भूकम्प आ चुका है, जिससे सिवनी, जबलपुर और मण्डला में अनेक मकान ध्वस्त हुए और अनेक मौतें भी हुई थीं. दूसरा तथ्य जो सार्वजनिक नहीं किया गया है वह यह कि केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (सी.ई.ए.) के अनुसार परमाणु बिजलीघर में 6 घनमीटर प्रति मेगावाट प्रति घंटा पानी लगता है. इसका अर्थ है कि चुटका परमाणु बिजलीघर से 1400 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए 7 करोड़ 25 लाख 76 हजार घनमीटर पानी प्रति वर्ष आवश्यक होगा. यह पानी नर्मदा पर बने बड़े बांधों में से एक बरगी बांध से लिया जाएगा! बरगी बांध के दस्तावेजों में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि इसका उपयोग केवल कृषि कार्यों और 105 मेगावाट विद्युत उत्पादन के लिए ही होगा, तो फिर यह पानी परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए कैसे जाएगा?
परमाणु संयंत्र से निकलने वाली भाप और संयंत्र को ठंड़ा करने के लिए काम में आने वाले पानी में रेडियोधर्मी विकिरण युक्त तत्व शामिल हो जाते है. भारत में अधिकांश परमाणु विद्युत परियोजनाएं समुद्र के किनारे स्थित हैं, जिनसे निकलने वाले विकिरण युक्त प्रदूषण का असर समुद्र में जाता है किन्तु चुटका परमाणु संयंत्र का रिसाव बरगी जलाशय में ही होगा. विकिरण युक्त इस जल का दुष्प्रभाव मध्यप्रदेश एवं गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे बसे अनेक शहर और गांववासियों पर पड़ेगा, क्योंकि वहां की जलापूर्ति नर्मदा नदी से ही होती है. इससे जैव विविधता के नष्ट होने का खतरा भी है.
मध्यप्रदेश की आदर्श पुनर्वास नीति कहती है कि लोगों के बार-बार विस्थापन पर रोक लगनी चाहिए. चुटका से प्रभावित लोग एक बार बरगी बांध के कारण पहले ही विस्थापित हो चुके हैं, ऐसे में इन्हें यहां से पुनः विस्थापित करना नीति का ही उल्लंघन है. वैसे भी मंडला जिला पांचवीं अनुसूची में अधिसूचित क्षेत्र है. पंचायत (अनूसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 – (पेसा कानून) के अंतर्गत ग्रामसभा को विशेष अधिकार प्राप्त हैं. चुटका, कुंडा और टाटीघाट जैसे गांवों की ग्रामसभा ने पहले ही इस परियोजना का लिखित विरोध कर आपत्ति जताई है, तो फिर उसे नजरंदाज करना क्या संविधान प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है?
सबसे गंभीर बात यह है कि ग्रामीणों को अँधेरे में रखने हेतु परियोजना की 954 पृष्ठों वाली रिपोर्ट सिर्फ अंग्रेजी में प्रकाशित की है और यह भी तकनीकी शब्दावली से भरी पड़ी है. अभी रोजगार दिए जाने जैसे सवालों पर बात नहीं हुई है. जब तक इस परियोजना के लिए कार्यालय /कालोनी आदि बनेगी, तब तक स्थानीय जनों को मजदूरी वाला काम उपलब्ध कराया जाएगा. खुद कम्पनी के दस्तावेज कहते हैं कि यह एक तकनीकी काम है और जिसके लिए उच्च प्रशिक्षित लोगों की जरुरत होगी? इस विपरीत दौर में एक राहत की बात यह है कि चुटका में भारी जनदवाब के चलते परमाणु परियोजना के लिए पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट पर की जाने वाली जनसुनवाई को पुनः रद्द कर दिया गया है. जनसुनवाई की आगामी हलचल अब संभवतः विधानसभा चुनावों के बाद ही सुनाई दे.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें