मंगलवार, 20 जनवरी 2015

क्यों तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में...


(धधकता मुजफ्फरपुर का अजीजपुर गांव, तसवीर-मुजफ्फरपुर लाइव के फेसबुक वाल से साभार)
पुष्यमित्र
मुजफ्फरपुर की खबर आपको मालूम है. कैसे लोगों ने पूरी बस्ती आग के हवाले कर दी. मसला यह नहीं है कि चार मरे या आठ. वे हजारों लोग क्या जिंदा थे, जिन्हें घरों को घूरा बना देने में एक पल को संकोच नहीं हुआ. कलेजा तो यह सुनकर कटता है कि यह सब मुहब्बत के नाम पर हुआ. किस शेर को याद करूं... एक आग का दरिया है... या तुम तरस नहीं खाते... जी चाहता है जिगर मुरादाबादी साहब की रूह को बुलावा भिजवा कर कहूं कि आपने जो शेर लिखा था, कभी सोचा था कि वह हकीकत में कैसा होगा... बशीर बद्र साहब तो देखते रहते होंगे. मुजफ्फरनगर और मुजफ्फरपुर में अब फर्क ही क्या रहा... नाम का भी तो नहीं...
भारतेंदु, उसकी बहन नीलम, सदाकत अली और उसकी बहन साथ-साथ पढ़ा करते थे. सातवीं कक्षा से ही इन चारों का साथ बरकरार था. दोस्ती ऐसी थी कि परिवार के नाते-रिश्ते बन गये थे. घरों में आना-जाना लगा रहता था. मगर महज चार साल में वक्त ने बिसात ही पलट कर रख दी. दसवीं की कक्षा में सिर्फ भारतेंदु ही पास हो पाया, बांकी तीनो असफल रहे. कहते हैं इस नतीजे ने पहले सदाकत के मन में खटास को जन्म दिया. फिर भारतेंदु और सदाकत की बहन एक दूसरे को पसंद करने लगे. पहले से मात खाये सदाकत के मन में संभवतः इस बात ने जहर बो दिया.
अब यह पुलिस अनुसंधान का मसला है कि भारतेंदु कैसे लापता हुआ और उसका कत्ल किसने किया. कहा जाता है कि सदाकत ने भारतेंदु को विदेश में नौकरी दिलाने का ऑफर दिया था, इसी वजह से भारतेंदु पटना से अपने गांव लौटा था. साल भर से भारतेंदु और सदाकत के बीच बातचीत बंद थी. नये साल के मौके पर दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई थी. भारतेंदु सहनी नौ जनवरी को अचानक लापता हो गया और 11 जनवरी को भारतेंदु के पिता कमल सहनी ने सदाकत को आरोपी बनाते हुए एफआइआर दर्ज करा दिया. फिर अचानक भारतेंदु का शव सदाकत के घर के पास बरामद हुआ और अजीजपुर बलिहारा गांव धधक उठा.
अब सवाल उठता है कि आखिर भारतेंदु का शव देखकर क्यों हजारों लोग बस्ती जलाने निकल पड़े. पहले तो तय होना चाहिये था कि आखिरकार हत्या किसने की. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि हत्या सदाकत ने ही की होगी. अगर मान भी लिया जाये कि हत्या सदाकत ने की है तो क्या उसका दंड उसके परिवार-नातेदार, पड़ोसियों और कौम के लोगों को देना जायज है? हमारे मन में एक पुरानी ग्रंथी बैठी रहती है. हम एक व्यक्ति की गलती की सजा उसके परिवार, समाज, जात और कौम को देने पर उतारू हो जाते हैं. हम उसे इंडीविजुअल नहीं मानते. इसी ग्रंथी की वजह से लोग रेपिस्ट की मां-बहन से रेप करना जायज मान बैठते हैं. बेटे की सजा पिता को देते हैं.
मेरा दावा है कि देश के 99 फीसदी लोग इस ग्रंथी से मुक्त नहीं हैं. अगर मुक्त होते तो इस देश में मां-बहन के नाम से गालियां नहीं प्रचलित होतीं. आखिर इन गालियों का मकसद किसी व्यक्ति के अपराध की सजा उसकी मां और बहन को देना ही तो होता है. सारे दंगे इसी वजह से होते हैं. जमाना व्यक्तिवाद से भी आगे निकल जाने की हड़बड़ी में है, मगर हम कौम और समाज की इकाई से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. अगर यह सच है कि सदाकत ने ही भारतेंदु की हत्या की या करवाई है, तो भी यह मामला भारतेंदु की मोहब्बत और सदाकत की नफरत का है. इसके आगे यह एक पुलिस केस है. मगर नहीं, लोग सदाकत की नफरत का सिला उसके पूरे कौम को देना चाहते हैं. समाज अचानक एक्टिव हो जाता है और फैसले लेने लगता है.
(अजीजपुर गांव में अगलगी के बाद अपने किराना गुमटी के सामने बचे सामान को बटोरती नसीमा बानो. तसवीर-प्रशांत रवि)
सवाल यह भी है कि हमारा समाज ऐसे ही वक्त में क्यों एक्टिव होता है? कहीं इसके पीछे कोई पॉलिटिकल लोचा तो नहीं. कहीं एंटी लव जिहाद टाइप एंगल तो नहीं निकाला जा रहा है? बहुत मुमकिन है ऐसा हो... और ऐसा नहीं होना भी उतना ही मुमकिन है. यह उसी तरह है जैसे यह मुमकिन है कि सदाकत ने ही भारतेंदु का कत्ल किया होगा और यह नहीं होना भी उतना ही मुमकिन है. इसलिए जैसे कुछ लोग सदाकत के हत्यारे होने के नतीजे पर फट से पहुंच जाते हैं, वैसे ही कुछ लोग इसमें पॉलिटिकल फ्लेवर की बात भी फट से सूंघ लेते हैं. मेरे हिसाब से दोनों अनुमान आपराधिक हैं. इससे नफरत बढ़ता है और आम लोगों की जान गंड़ासे की नोक पर पहुंच जाती है.
यह ठीक है कि हमारे गांव में जो समाज नाम की अनौपचारिक संस्था बची खुची बरकरार है, उसमें कुछ भी पॉजिटिव करने का धैर्य और हौसला नहीं बचा है. मगर उसकी भावना बहुत जल्द आहत हो जाती है, छोटी सी बात को लेकर उसे लगने लगता है कि कौम या बिरादरी के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है. इसलिए नेता नगरी कभी चार तो कभी दस बच्चे पैदा करने का फालतू फार्मूला उसे सुझाने लगती है. यही वजह है कि अपनी बेटी का दूसरी बिरादरी में चली जाना उसके लिए आन का मसला बन जाता है और दूसरे बिरादरी की बेटी लाना फख्र की बात. अब यहां उस घिसी पिटी बात को याद दिलाने का कोई तुक नहीं है कि यह समाज अपनी ही बेटियों को जन्म से लेकर उसके हर संस्कार के मौके पर कितना ह्यूमिलियेट करता है. हां उससे हम एक्सपेक्ट तो कर ही सकते हैं कि वह चार बच्चे पैदा करे, पति की चिता पर सती हो जाये और मलेच्छों के हाथ में पड़ने से पहले जौहर कर ले.
हम क्यों पांच सौ साल पुरानी सोच को छोड़ देने के लिए तैयार नहीं हैं. जबकि हम एक मोबाइल हैंडसेट को दो साल से अधिक यूज करने के लिए रेडी नहीं हैं. हम दीवार फिल्म के जमाने का बेलबॉटम आज पहन नहीं सकते मगर राजपूताना की उस ईगो वाली थ्योरी को आज भी बड़े गर्व के साथ ओढ़े हुए हैं. बदलिये भाई. बदलने के बिना आप सड़े जा रहे हैं.
भारतेंदु की मोहब्बत और सदाकत की नफरत को उसका निजी मामला बने रहने दीजिये. अगर सचमुच सदाकत की बहन के दिल में भारतेंदु के लिए मोहब्बत होगी तो सोचिये उस बच्ची पर क्या गुजर रही होगी. क्या आपके पास उसके दिल के जख्मों के लिए कोई दवा है... सदाकत की नफरत का इलाज पुलिस प्रशासन को करना है. न्याय की दरकार कमल साहनी के परिवार को है, दो हजार की भीड़ को नहीं. अब उनके चार या आठ लोगों को कैसे न्याय मिलेगा जिसका फैसला आपने अपने जुनून में कर दिया. उन्हें मछलियों की तरह जिंदा भून दिया. उनके परिजनों के आंसू कौन पोछेगा. जिस तरह भारतेंदु बेगुनाह था, उसी तरह वे लोग भी तो बेगुनाह ही होंगे... और क्या लिखूं...

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