रविवार, 18 जनवरी 2015

रोपणी से कटनी तक सब औऱत ही तो करती है


कृषक मजदूरों के पलायन और जमीन मालिक किसानों के खेती से मोहभंग ने बिहार में एक नयी तरह की व्यवस्था को जन्म दिया है. अब यहां ग्रामीण इलाकों में मजदूर वर्ग की महिलाएं बड़े पैमाने पर खेती में हुनर आजमाने लगी हैं. पति और बेटों के पलायन कर जाने के बाद उनके पास वैसे भी ज्यादा काम नहीं होता, सो वे जमीन मालिकों से खेत बटाई और लीज पर लेकर खेती करने लगी हैं. यह कोई इक्का-दुक्का मामला नहीं, तकरीबन हर गांव में ऐसी दसियों महिलाएं नजर आ जाती हैं जो खेतिहर बन गयी हैं. हालांकि इनके योगदान को न तो समाज नोटिस करता है न सरकार. सरकार द्वारा संचालित कृषि विकास की योजनाओं में शायद ही कहीं लाभुकों की सूची में महिला किसानों का नाम नजर आये. मगर इन तमाम विसंगतियों के बावजूद ये महिलाएं लगातार खेतों से अनाज और सब्जियां पैदा कर लोगों के भूख का समाधान करने में जुटी हैं.
ऐसी ही एक महिला किसान हैं अहिल्या देवी. वे धमदाहा गांव की रहने वाली हैं. तकरीबन 20 साल से वह बटाई पर और लीज पर जमीन लेकर खेती कर रही हैं. उनके पति केसरी मंडल का लंबे समय तक पंजाब की ओर जाना लगा रहा, पिछले कुछ सालों से वे घर पर रहते हैं. मगर वे खेती के काम में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते. रंगाई-पुताई का काम उन्हें भाता है. खेती का जिम्मा अहिल्या देवी के सर पर है. 20 साल की खेती के जरिये अहिल्या देवी ने वह काम कर दिखाया है, जो आज भी असंभव प्रतीत होता है. कभी यह परिवार भूमिहीन था, रहने के लिए बहुत छोटा सा जमीन का टुकड़ा इनके पास था. आज इनका घर दो कट्ठा जमीन पर बसा है, दरवाजे पर चार दुधारू जानवर बंधे रहते हैं. इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि इनका लड़का अवधेश मंडल है, जिसे इन्होंने अपनी खेती की कमाई से पढ़ा लिखाकर इंजीनियर बनाया है. पिछले महीने अवधेश को नौकरी मिली है, पुणे की एक कंपनी में.
इस साल भी अहिल्या जमीन लीज पर लेकर धान की खेती कर रही है. मगर एक महिला किसान के रूप में इन्हें जो संघर्ष 20 साल पहले करना पड़ता था. वह आज भी कायम है. पेश है उनसे इस संबंध में हुई लंबी बातचीत-
आप बीस साल से खेती कर रही हैं, इस बीच आपका परिवार व्यवस्थित हो गया है. अब आप कैसा महसूस करती हैं?
अब खेती करने का हौसला नहीं रहा. शरीर जवाब देने लगा है. कुछ काम नहीं किया जाता. फिर भी खेती करने की आदत है तो करेंगे ही. इसके बिना चारा भी क्या है...
खेती ही करना है, यह विचार आपके मन में कैसे आया. उस वक्त तो कोई औरत खेती नहीं करती थी?
मगर उपाय क्या था. जब शादी के बाद यहां आई तो देखा कि आमदनी का कोई जरिया ही नहीं है. पूरा परिवार दूसरों के खेत में मजदूरी करता है, फिर भी इतनी आमदनी नहीं होती कि साल भर गुजारा हो सके. पति पंजाब चले जाते थे और मैं यहां अकेले रह जाती थी. मेरा मायका खेतिहर वाला है. सो मालूम था कि कैसे खेती होती है. इसलिए ससुरजी से कहकर कुछ खेत बंटाई पर ले लिया और खुद खेती करने लगे. खेत मालिक बाहर में सरकारी नौकरी करते थे. उनके पास खेती करने का टाइम नहीं था. हमने कहा, लागत आप लगाइये, खेती हम करेंगे और आधा-आधा उपज बांट लेंगे. इससे हमारे परिवार को बहुत लाभ हुआ. हमलोग अचानक मजदूर से गिरहथ(गृहस्थ) हो गये. फिर दूसरे नौकरी पेशा जमीन मालिकों का खेत मिला. हमारी देखा-देखी दूसरे लोगों ने भी बंटाई पर खेती शुरू कर दी.
महिला होकर खेती करने में क्या कभी कोई परेशानी भी हुई?
आप लोगों का सोचना ही गलत है. महिला लोग तो हमेशा से खेती करती रही है. धनरोपणी महिलाएं ही करती हैं और कटनी, झंटनी और फसल झाड़ना-सुखाना सारा काम तो हमलोगों का ही है. मरद तो खाली हल चलाता है, इसलिए लोगों को किसान का मतलब मरद समझ में आता है. हमलोग तो पहले से ही मजदूर थे, इसलिए मजदूरों की कभी दिक्कत हुई नहीं. खेती का खर्च जमीन मालिक दे देते थे. हां, कभी किसी योजना का लाभ नहीं मिला. एक तो औरत जात, दूसरा अपनी जमीन नहीं.
क्यों सरकार तो बंटाईदारों और लीज पर जमीन लेकर खेती करने वालों को भी योजना का लाभ देती है, और महिलाएं तो उनकी प्राथमिकता में होती हैं?
सब कहने के लिए है. योजना का लाभ लेना इतना आसान है... दौड़-धूप कीजिये, दलाल को पकड़िये, खर्चा-पानी कीजिये. यही काम करने लगे तो खेती ही चौपट हो जायेगी. योजना का लाभ तो उसके लिए है जो फुरसत में है, जिसके पास काम कम है और खर्चा करने के लिए पैसा है. गरीब आदमी के बस में योजना का लाभ लेना कहां लिखा है... अब तो दो बार योजना का लाभ लिये हैं, उसी में हालत खराब है. एक बार 15 हजरिया इंदिरा आवास मिला था, दूसरी बार बेटा के लिए स्कॉलरशिप.
15 हजार का तो कोई इंदिरा आवास नहीं था. पहले भी 20 हजार मिलते थे.
हां वही. देने वाला तो पांच हजार कमीशन काट के दिया न. उपर से घर भी खुद आकर बना दिया. ऐसा घर बना कि पांच साल भी नहीं चल पाया. फिर से ठीक कराना पड़ा जिसमें अपना 20-25 हजार खर्च करना पड़ा. गरीब आदमी का जीवन सरकारी योजना से सुधरने वाला नहीं. आप खुद मेहनत नहीं कीजियेगा तो सब दिन यही हाल रहेगा. हमलोग भी योजना के चक्कर में रहते तो कभी हालत नहीं सुधरता. आज मेहनत किये हैं तो दिन-दुनिया ठीक हुआ है.
और बेटे की स्कॉलरशिप...?
हां, गांव के एक पढ़े-लिखे आदमी ने बताया था कि गरीब लोगों के बच्चे को इंजीनियरिंग-मेडिकल पढ़ने के लिये सरकार मदद देती है. मगर तब तक हमलोग कर्जा-ऊर्जा लेकर. खेत में लगा फसल बेचकर बेटा को एडमिशन करवा दिये थे. देर से अपलाई किये इसलिए दो किस्त ही उठा पाये. लोन लेकर बेटा को पढ़ाये. अब नौकरी भी लगा है तो 22 हजार का. कितना पैसा कटायेगा, कितना बचायेगा. कहता है पूना महंगा शहर है...
और खेती के लिए कोई सहायता नहीं लिये, डीजल अनुदान भी नहीं..
एक पैसा नहीं. डीजल अनुदान का मतलब है, जमीन का कागज दीजिये. डीजल का रसीद लगाइये. हमारे पास कागज ही नहीं है. जिसको कागज है ऊ फरजी रसीद देकर अनुदान ले लेता है. जबकि सब जानता है कि जमीन का कागज जिसके पास है उसमें सौ में से नब्बे लोग खेती नहीं करता है. फिर भी अनुदान उसी को मिलता है. हमलोग पटवन(सिंचाई) में पैसा गलाते रहते हैं.
और ट्रैक्टर, पंपसेट वगैरह...
जब डीजल अनुदान नहीं ले पा रहे तो ट्रैक्टर और पंपसेट तो बड़ी बात है. वहां तो बैंक और दलाल का खेल है. औरत जात के बस की बात है वहां पहुंचना.
फिर तो खेती में बहुत पैसा खर्च होता होगा...
खर्चा का घर ही है खेती. आमदनी कम, खर्चा ज्यादा. ऊ तो हमलोग मजदूरी का आधा काम अपने से कर लेते हैं तो जान बच जाता है. वही बचत है, नहीं तो खेती में कुछ बचता है. फिर ई भी बात है कि घर में चार लोग अलग-अलग कमाते हैं तो सब ठीक हो जाता है. हम औरत जात हैं, खेती के अलावा क्या कर सकते हैं. इसमें जो चार पैसा बचा लेते हैं, वही काम आता है. बांकी मरद लोग तो कमाता ही है...

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