मंगलवार, 6 जनवरी 2015

मक्के की ताकत से बच्चे बन रहे डॉक्टर इंजीनियर


लोहसरी से शैलेंद्र
खेती से तस्वीर व तकदीर कैसे बदलती है. ये देखना है, तो मुजफ्फरपुर के बोचहां प्रखंड का लोहसरी गांव सबसे उपयुक्त रहेगा. यहां के ज्यादातर लोगों ने खेती से सफलता की कहानी लिखी है. इस गांव में हाल के दिनों या सालों में खेती से फायदा कमाने की तरकीब नहीं सीखी है. दशकों से गांव में उन्नत खेती होती रही है. पीढ़ियां बीती हैं, लेकिन खेती का जलवा बरकरार है. 90 के दशक से पहले यहां अलुआ (शकरकंद) की बड़े पैमाने पर खेती होती थी, लेकिन उसके बाद यहां के किसानों ने मक्का उत्पादन की ओर रुख किया और अभी मुजफ्फरपुर जिले में लोहसरी सबसे ज्यादा मक्का पैदा करनेवाले गांव है. इसके आसपास के गांवों में भी बड़े पैमाने पर मक्का की खेती होती है. गांव के किसान बताते हैं कि लगभग पांच हजार एकड़ में हर साल मक्के की फसल लगायी जाती है. इसी वजह से एक दर्जन से ज्यादा मक्के का बीज बेचनेवाली कंपनियों के प्रतिनिधि गांव का चक्कर लगाते रहते हैं.
वैज्ञानिक तरीके से खेती
प्रगतिशील किसान नीरज नयन बताते हैं कि लोहसरी मक्का उत्पादन में ऐसे ही नंबर वन नहीं बना है. इसके पीछे की वजह वैज्ञानिक तरीके से खेती करना है. गांव के किसानों ने अपने खेतों की मिट्टी की जांच करवायी, जब उन्हें पता चला कि मिट्टी में जिंक की कमी है, तो उन्होंने अपने खेतों में जिंक डालना शुरू किया. धान की फसल कटते ही खेतों में दस किलो बीघा के हिसाब से जिंक डाली जाती है. इसी में एक किलो प्रति बीघे से हिसाब से बोरन डालते हैं. इसके बाद खेतों में जैविक खाद डाली जाती है. ये सब होने के बाद खेतों की जुताई शुरू की जाती है, ताकि मक्के की फसल के लिए खेत को तैयार किया जा सके.
35 दिन में पहला पानी
लोहसरी के आसपास इस समय सिर्फ और सिर्फ मक्के की ही खेती दिख रही है. चारों ओर मक्के से खेतों में हरियाली है. अभी कुछ दिन पहले ही मक्का बोया गया है. अब बढ़ रहा है. गांव भ्रमण के दौरान हरेराम मिश्र से मुलाकात होती है. पूछने पर कहते हैं, मक्का के अलावा यहां किसी और चीज का खेती कम ही होता है. हम भी 1992 से मक्का की खेती कर रहे हैं. वो बताते हैं सबने मक्का की सिंचाई का अपना इंतजाम कर रखा है. सरकारी व्यवस्था के नाम पर यहां दो बोरिंग है, लेकिन एक भी नहीं चलती है. सब लोगों ने अपने खेतों में बोरिंग कर पंपिंग सेट बिठा रखा है. उसी से सिंचाई होती है. मक्के की फसल को पांच पानी चाहिए और पहला पानी फसल बोने के 35 दिन लगता है.
मक्का खुशहाली का आधार
खेतों में मजदूरी का काम करनेवाले दिनेशी पासवान कहते हैं कि गांव के लोग मक्के की खेती पर विशेष ध्यान देते हैं, क्योंकि यहीं यहां की खुशहाली का आधार है. मक्के को पानी व खाद देने का कलेंडर बना रखा है. जिस दिन मक्के को पानी देना है. भले ही उनसे और काम छूट जायें, लेकिन पानी देना नहीं भूलेंगे. वो कहते हैं, गांव में जो खुशहाली आयी है, वो सब मक्के की वजह से ही है. हमारे साथी जो काम की तलाश में बाहर जाते हैं, वो भी जब मक्का कटता है, तो वापस घर आ जाते हैं. इसी से उनके घर की पूरे साल की रोजी-रोटी चलती हैं. कमाई से होनेवाली आमदनी उनकी बचत होती है.
धान से लागत, मक्का से कमाई
किसान कामेश्वर मिश्र के पास 25 एकड़ का जोत है, ज्यादातर जमीन में मक्के की खेती करते हैं. गांव की चौपाल में कामेश्वर की आवाज बिल्कुल अलग गूंजती है. वो साफ-साफ बोलते हैं. कहते हैं, हम लोग खेतों में मक्का व धान की खेती करते हैं. गेंहू केवल खाने व फसल चक्र को बदलने के लिए उपजाते हैं. बताते हैं, गेंहू से तीन गुना ज्यादा मक्के में फायदा है. वो कहते हैं, धान से जो फायदा होता है. वो मक्के की फसल में लागत के काम आता है, जबकि मक्के से होनेवाली आमदनी गांव के किसानों की बचत है. कामेश्वर के बेटे सुनील कुमार व जय प्रकाश भी खेती करते हैं, जबकि पोता गौरव इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है.
सरकार खरीदे मक्का
लोहसरी के हेमंत कुमार मिश्र भी मक्के की उन्नत खेती करते हैं. कहते हैं, गांव में सरकारी स्तर पर कोई सुविधा नहीं है. निजी कंपनियों के मक्का खरीद पर रोक है, लेकिन सरकार की ओर से मक्का की खरीद नहीं की जाती है. ऐसे में हम लोगों को बाजार पर ही निर्भर रहना पड़ता है. सरकार को गेंहू व धान की तरह मक्का की खरीद भी करनी चाहिए, उसके लिए क्रय केंद्र खोलना चाहिए. गांव में सिंचाई के लिए पंप लगे हैं, उन्हें चालू करवाना चाहिए. सरकारी हस्तक्षेप बढ़ेगा, तो निजी कंपनियों का प्रभाव कम होगा. अभी गांव के लोगों को कंपनियों की ओर से बीज बेचने को लेकर तरह-तरह का प्रलोभन दिया जात है. गिफ्ट से लेकर शहर के होटलों में पार्टी तक दी जाती है.
अध्यापन के साथ खेती
डॉ शत्रुघ्न प्रसाद मिश्र भी गांव के उन्नत किसानों में हैं. इनके यहां उत्तर बिहार में सबसे ज्यादा मक्के का उत्पादन होता है. ये बेगूसराय के जीडी कॉलेज में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष हैं, लेकिन खेती से इनका नाता कभी नहीं टूटा. शनिवार को घर आते हैं और रविवार को खेती-बारी का काम देखते हैं. ऐसा करते हुये इन्हें 35 साल हो गये हैं. इनके बेटे भी खेती करते हैं. नीरज नयन व राकेश रत्न दोनों ने पोस्ट ग्रेजुएट किया है. राकेश कुमार रत्न ने एमएससी की है, लेकिन खेती करते हैं. नीरज ने पोस्ट ग्रेजुएट के बाद खेती शुरू की, वो बिहार भाजपा किसान मोरचा के सचिव भी हैं. नीरज का भतीजा नवनीत किशन अभी सिक्किम में एनआइटी कर रहा हू. भतीजी मधुलिका रत्न भी पढ़ाई में अव्वल है. कई पुरस्कार प्राप्त कर चुकी है.
गांव के साथ शहर में घर
लोहसरी के लोगों ने खेती के सहारे अपनी किस्मत चमकाई है, लेकिन अपनी आनेवाली पीढ़ी को जमाने के साथ देखना चाहते हैं. गांव में चमचमाते मकान के साथ यहां के ज्यादातर लोगों के मुजफ्फरपुर शहर में भी मकान हैं. दिन भर गांव में खेतों में काम करने के बाद ज्यादातर लोग शहर लौट आते हैं. लगभग पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर शहर है. इस वजह से आने-जाने में ज्यादा समय नहीं लगता है. शहर में बच्चों को अच्छी शिक्षा यहां के लोग दे रहे हैं. बच्चे भी इनकी आशाओं पर खरे उतर रहे हैं. गांव के लगभग आधा दर्जन बच्चे इस समय इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ रहे हैं. इसके अलावा अन्य क्षेत्रों में भी नौकरियां हासिल कर रहे हैं. ग्रामीणों का कहना है कि नौकरी करने के बाद भी गांव के लोगों का खेती से लगाव बना है. वो खेतों में शान से काम करते हैं.
आठ से साठ बीघे हो गयी जमीन
गांव के राधेश्याम सिंह ने खेती के बल पर वो कर दिया है, जिसकी कल्पना कम ही लोग करते हैं. बचपन में ही पिता की मौत हो गयी. इसके बाद भाइयों का बोझ राधेश्याम पर आया. खेती आठ बीघे थी. उन्नत खेती शुरू की. भाइयों को पढ़ाया. खेती को आगे बढ़ाया. आज इनके पास साठ बीघे जमीन है. पक्का मकान है. राधेश्यम सिंह ने त्रिभुवन सिंह व राम विनोद सिंह को पोस्ट ग्रेजुएट करवाया. त्रिभुवन सिंह की दो साल पहले नौकरी लगी है. हाईस्कूल में अध्यापक हैं. अध्यापन के साथ खेती करते हैं, जबकि राम विनोद सिंह नौकरी करते हैं. त्रिभुवन सिंह का बेटा कुमार गौतम आइआइटी कर चुका है, जो पावरग्रिड में इंजीनियर है.
खेती के लिए नौकरी छोड़ दी
स्कूल इंस्पेक्टर की नौकरी करनेवाले गांव राज पलटन मिश्र ने सत्तर के दशक में खेती के लिए नौकरी छोड़ दी थी. खेती के दम से ही उन्होंने मुजफ्फरपुर के सिकंदरपुर में मकान बनाया. उनके चार बच्चों ने उच्च शिक्षा ग्रहण की और सभी खेती करते हैं. बड़े लड़के राम रेखा मिश्र खेती के साथ गांव में पोस्टमास्टर हैं. छोटे बेटे अनिल मिश्र पैक्स के अध्यक्ष हैं. इन लोगों ने खेती के दम पर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दे रहे हैं.
अशोक हाल में मिले किसानों को सम्मान
लोहसरी गांव के किसानों की मांग है कि हम लोगों का भी सामाजिक तौर पर सम्मान होना चाहिए. जिस तरह से अन्य लोगों को राष्ट्रपति भवन के अशोका हाल में सम्मानित किया जाता है. वैसे ही किसानों को भी सम्मान किया जाना चाहिए. राकेश कुमार रत्न सवाल उठाते हैं कि सामाजिक तौर पर मान्यता नहीं होने के कारण हम लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. अगर हम कहीं अपने घर की बेटियों का रिश्ता लेकर जाते हैं, तो हमें किसान समझा जाता है, जबकि हम लोग भी अन्य लोगों की तरह ही हैं, लेकिन हम से ज्यादा नौकरी वाले को मान्यता दी जाती है. ये स्थिति बदलनी चाहिए. देश में सरकार बदली है, तो हमें लगता है कि इससे किसानों की स्थिति बेहतर होगी?
(साभार- प्रभात खबर)

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