मंगलवार, 6 जनवरी 2015

2014 का हाल- बंपर पैदावार मगर किसान कंगाल


मानसून के विपरीत होने के बावजूद देश के किसानों ने खून-पसीना एक कर दिया, बारिश की कमी डीजल में पैसे फूंक कर की और देश को भरपूर अनाज उपजा कर दिया. मगर जब उन्हें कीमत मिलने का वक्त आया तो खरीद एजेंसियों ने ढीला-ढाला रवैया अपनाना शुरू कर दिया. बिहार जैसे राज्य में अब तक किसी जिले में धान की सरकारी खरीद ठीक से शुरू तक नहीं हो पायी है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और पंजाब का भी वही हाल है. छत्तीसगढ़ ने धान खरीद पर 15 क्विंटल की सीलिंग कर दी है. केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को चेतावनी दे दी है कि अपनी तरफ से बिल्कुल बोनस न दें. देश की तमाम खोखली बहसों के बीच यह सवाल कहीं गुम हो गया है. कृषि विशेषज्ञ दविंदर शर्मा ने इस सवाल के पीछे की सच्चाई को बारीकी से पकड़ा है. दरअसल अनाज भंडार पिछले साल की पैदावार से ही भरे हैं. लिहाजा एजेंसियां किसानों की पैदावार खरीदने को इच्छुक नहीं है. इसके अलावा एक सोच सी बन गयी है कि किसानी को हतोत्साहित किया जाये ताकि भूमि अधिग्रहण के मसलों में अधिक परेशानी न हो. देश के विकास का मतलब औद्योगिक विकास मान लिया गया है. इन्ही मसलों पर उनका यह आलेख किसानी की मौजूदा हालत को समझने के लिए मौजू है...
मानसून की नाफरमानियों के बावजूद साल 2014 में रिकार्ड कृषि उत्पादन दर्ज किया गया. लेकिन उत्पादन में बढोतरी किसानों की आमदनी में उछाल लाने में कामयाब नहीं हो पायी. यह साल किसानों के लिए निराशा भरा साल बनकर रह गया.
कृषि वर्ष 2013-14 में जो जून 2014 में समाप्त हुआ देश के किसानों ने 264,400,000 टन खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन किया. खाद्यान्नों के साथ-साथ तिलहन, मक्का, कपास और दलहन के उत्पादन में भी भारी उछाल देखा गया. तिलहन का उत्पादन 4.8 प्रतिशत की छलांग के साथ 3.45 करोड़ टन के रिकार्ड उत्पादन स्तर पर पहुंच गया. मक्का उत्पादन 24,200,000 टन के स्तर तक पहुंचा और 8.52 फीसदी की वृद्धि हुई. दलहन उत्पादन 19,600,000 टन दर्ज किया गया जो पिछले साल के मुकाबले फीसदी 7.10 अधिक था. कपास उत्पादन ने भी रिकार्ड ऊंचाई को छुआ. खरीफ 2014 में भी मानसून की बारिश में कमी के बावजूद किसानों ने चावल, मक्का और कपास का बंपर उत्पादन किया.
देश के किसानों ने यह रिकार्ड उत्पादन मानसून के कमजोर रहने के बावजूद किया लिहाजा इसका पूरा क्रेडिट उनकी मेहनत और सूझबूझ को जाता है. वस्तुतः आर्थिक स्थिति में सबसे निचले स्तर पर रहने के बावजूद इस देश के किसानों ने कभी राष्ट्र को असफल नहीं किया है. शायद इस बात का मर्म समझने की वजह से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू कराने का वादा किया था जिससे किसानों को अधिक आमदनी हो सके. उस वक्त वादा किया गया था कि किसानों को उत्पादन की लागत पर 50 फीसदी का लाभ सुनिश्चित किया जायेगा.
लेकिन हकीकत यह है कि किसानों को चावल और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में सिर्फ 50 रुपये की बढ़ोतरी का उपहार मिला है जो पिछले साल के मुकाबले महज 3.6 प्रतिशत अधिक है. यह बढ़ोतरी उतनी भी नहीं है कि किसान मुद्रास्फीति के बोझ का भी मुकाबला कर पाये. विडंबना तो यह है कि इस साल बासमती चावल और कपास की कीमतों में गिरावट दर्ज की गयी. यह तब है जब बासमती चावल का उत्पादन पंजाब और हरियाणा में दोगुना हो गया है. ऐसे में किसानों को इस साल अपना बासमती 1600-2400 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा. पिछले साल उन्हें इस चावल की कीमत 3261 से 6085 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हासिल हुई थी.
कपास की कीमतें भी इस साल रुपये प्रति क्विंटल 3,000 रुपये प्रति क्विंटल पहुंच गयी. यह पिछले साल 4400 से 5200 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हुआ करती थी. ऐसे में सरकार के निर्देश पर भारतीय कपास निगम को किसानों का कपास 3750 की खरीद मूल्य पर खरीदना पड़ा. हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि पंजाब औऱ हरियाणा में बासमती के रिकार्ड उत्पादन की वजह वहां के किसानों द्वारा डीजल पंप का भरपूर संचालन है. 50 फीसदी कम बारिश होने की वजह से किसानों ने पंप चलाने में क्षमता से अधिक पैसा डीजल के लिए खर्च किया था.
इस पर से किसानों पर एक औऱ चोट इस रूप में पड़ी कि खाद्य मंत्रालय ने राज्य सरकारों को निर्देश जारी कर दिया कि वे एमएसपी पर कोई बोनस प्रदान नहीं करें. अगर राज्य सरकार बोनस देते हैं तो मंत्रालय खरीद प्रक्रिया से हाथ खींच लेगा. राज्य सरकारों को भी सलाह दी गयी कि वे कम खरीद करें क्योंकि भंडार में पहले से ही काफी खाद्यान्न जमा है. दूसरे शब्दों में, किसानों को बाजारों की अनियमितता का सामना करने के लिए छोड़ दिया गया है.
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) धीरे-धीरे खरीद संचालन से अपना हाथ खीच रहा है, ऐसे में बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और पंजाब में सरकारी खरीद में जानबूझकर देरी के उदाहरण सामने आ रहे हैं. छत्तीसगढ़ में कभी वादा किया गया था कि किसानों के धान का एक-एक दाना खरीद लिया जायेगा मगर इस साल हर किसान से अधिकतम 10 क्विंटल ही खरीदने की बात की जा रही थी. विरोध प्रदर्शन के बाद, यह सीमा प्रति किसान 15 क्विंटल की गयी. पंजाब में किसानों को मौके पर भुगतान करने की प्रक्रिया में अनावश्यक विलंब करने की प्रवृत्ति देखी जा रही है. जैसे संदेश दिया जा रहा हो कि चावल का अधिक उत्पादन नहीं करें.
ऐसे समय में जब खेती से पहले से ही आमदनी घट रही है और ऋणग्रस्तता बढ़ती जा रही है, यह विफलता किसानों को और अधिक हतोत्साहित करेगी. भूमि अधिग्रहण कानून को और सरल बनाने और इसमें बहु फसलीय खेतों को भी शामिल करने का मतलब ही यही है कि भारतीय किसान देश के औद्योगिक विकास के लिए कुरबान हो जायें. अब आर्थिक विकास की तमाम बातें औद्योगिक क्षेत्र तक सीमित हो गयी हैं. ऐसे में इसका असर देश की खाद्य सुरक्षा पर पड़ना ही पड़ना है.
इसका असर खेती के लिए बजटीय प्रावधानों पर भी देखा जा सकता है. 2013 के बजट में जहां खेती के लिए 19,307 करोड़ रुपये ही जारी किये गये थे जो कुल बजट का एक फीसदी से भी कम था. इस साल अरुण जेटली ने कृषि को 22,652 करोड़ रुपये का बजट उपलब्ध कराया है.
उनके ब्लॉग ग्राउंड रियलिटी से साभार, अनुवाद- पुष्यमित्र

2 टिप्‍पणियां:

  1. भाजपा सरकार जमीन खोज रहा है सेटेलाइट सिटी बनाने के लिए....अच्छा अवसर है जमीन बेच जमींदारी करने का I

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    1. सही कह रहे हैं. इसी वजह से तो किसानों को हतोत्साहित किया जा रहा है.

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