मंगलवार, 6 जनवरी 2015

अंचल- प्रपंच और जमीन(किसान डाय़री-1)


गिरीन्द्रनाथ झा
अंचल में आने के बाद जिस शब्द से मैं अक्सर परेशान रहता हूं उसमें एक है ‘जमीन’। जिसे मैं कल तक धरती -भूमि या माटी कहता था उसे यहां आकर ‘जमीन’ कहने लगा हूं। शाम की शुरुआत में यह पोस्ट लिखते वक्त मुझे कॉलेज के दिनों में पढ़े एक बांग्ला उपन्यास ‘भूमि पुत्र’ की याद आ रही है। उपन्यास का नायक हमेशा “भूमि” के नशे में रहता था, आप सोच रहे होंगे कि ये कैसा नशा है? तो साहेबान भूमि का नशा किसी भी नशे से बढ़कर है। उपन्यास का नायक भूमि में ही रमा रहता था। अंचल में आने के बाद ही ‘भूमिपुत्र’ की कथा वस्तु को समझ पाया हूं।
अंचल में कोसी प्रोजेक्ट के नहर पर ऊंचाई से खेतों में पसरे हरे-हरे धान को निहारते हुए कभी कभी मैं भी जमीन के मालिकाना हक की एबीसीडी पढ़ने की कोशिश करता हूं तो लगता है कि माया का फेर यही है और शायद जीवन जीने की ललक भी यही है। सच कहूं तो मुझे जमीन की कथाएं भी नहर की भांति लगती है। कभी पानी तो कभी सूखा लेकिन जीने की आशा उसी पर टिकी रहती है। जमीन और नहर उस वक्त मेरे लिए एक समान लगने लगता है। मैं दोनों के हाव-भाव पढ़ने लगता हूं। मेरे जीवन में एक ऐसा भी वक्त था जब ऐसे रंगों से परहेज करता था लेकिन अब मैं उसी डफली में जीवन का राग आलापने लगा हूं।
बाउंड्री, अमीन, जमीन जैसे शब्द मुझे रंगरेज की तरह खींचने लगे हैं। सर्वे-सेटलमेंट-डिग्री.सिलिंग आदि शब्दों से ममत्व बढ़ गया है। दोस्त-यार कहते हैं कि अब मैं मायावी हो गया हूं। लेकिन सच कहूं तो इन सबके बीच भी मेरा मानुष बुदबुदाते रहता है- “ हर करम के कपड़े मैले हैं.....“ क्योंकि मन तो साफ नहीं रहा। जमीन कुछ सीखाए या सीखाए, प्रपंच तो जरुर सीखाता है। ऐसा मेरा मानना है।
मैं इस प्रपंच पर लंबी कथा बांच सकता हूं। ऐसी कथाएं अंचल में चलती रहती है। कबीराहा मठों पर भी इन कथाओं के नायक मुझे दिख जाते हैं। पिछली बरसात कटिहार जिले के एक कबिराहा मठ पर बैठा था तो एक ने कहा कि जीवन के प्रपंच में कपड़े सफेद रह जाएं यह संभव नहीं है। बरसात की उस दोपहर में भूमि पुत्र का नायक मेरे दिमाग में फिर चहलकदमी करने लगा था। हमने जान लिया कि अंचल के जीवन में प्रपंच ही मन रुपी कपड़े को मैला करता। इन सबके फेर में मेरे लिए फायदे की बात यह रही है कि बचपन में गणित से डरने वाला छात्र जीवन में अब अर्थशास्त्र के संग डुबकी लगाने लगा है।
खैर, अंचल में जिद की कथा ऐसे ही चलती है। मन जिद्दी होने चला है लेकिन मन पर लगाम कसने के लिए अभ्यास की जरुरत है। मेरा ध्यान गीता में छपे उस श्लोक पर टिक जाता है, जिसमें कृष्ण कहते हैं- “मन चंचल बहुत है,पर मन को वैराग्य और अभ्यास से वश में किया जा सकता है।“ लेकिन सच कहूं तो मैं इन अभ्यासों से अभी दूर रहना चाहता हूं। दरअसल अंचल में पांव फैलाने के बाद मेरे हिस्से में जिद्दी मन भी आ टपका है। मैं जिद को जीवन के अवयव की तरह देखना चाहता हूं। देखिए न यह लिखते वक्त उसके भीतर फिल्म ‘गुलाल’ का यह गीत भी बज चला है-
“चल तो तू पड़ा है,
फासला बड़ा है,
जान ले
अंधेरे के सर पे खून चढा है
मुकाम खोज ले तू
मकान खोज ले तू …
गिरीन्द्रनाथ झा के ब्लॉग अनुभव से साभार

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