बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

हल जोतना चाहते हैं या एसी ऑफिस में बैठना... :)


Rashmi Ravija
आज कहीं एक मजेदार तर्क पढ़ा..."आप खेत में हल जोतना चाहते हैं या AC ऑफिस में बैठकर काम करना."
AC ऑफिस में बैठकर वो किसान और उसके बेटे तो काम नहीं ही करेंगे .और अगर ये ऑप्शन हो तो भी अपना स्वामित्व और गुलामी का फर्क बहुत बड़ा है . ये तर्क भी दिया जा रहा है ," जमीन से अच्छी फसल नहीं हो रही, सुविधाएँ नहीं हैं, इसलिए वहां फैक्ट्री लगाई जाये तो उसमे क्या बुराई है ?...इसके बदले सुविधाएं उपलब्ध क्यों नहीं कराई जा रहीं कि बढ़िया फसल हो.
दो साल पहले मेरी कामवाली अपने गाँव वापस लौट गई .सात साल पहले वो अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मुम्बई आई थी .यहाँ घरों में काम करके बच्चों को पढ़ाया और जब वे नौकरी पर लग गए तो वो गाँव लौट गई .पिछले साल मिलने आई थी , अच्छी तंदरुस्त हो गई थी और थोड़ी काली भी .उसके पास काफी जमीन है, उसमें बढ़िया फसल हुई थी, कपास, सोयाबीन,चना.
अभी कुछ दिनों पहले फिर से मिलने आई थी. इस बार उसके खेत खाली पड़े हैं .पानी नहीं बरसा .फसल नहीं हो पाई .वो कुछ महीने फिर से घरों में काम करके गाँव लौट जायेगी क्योंकि उसके पास जमीन है और शायद इस साल अच्छी बारिश हो.
यही उसके खेतों को पानी की सुविधा मिली होती और उसके गाँव में अच्छे स्कूल होते तो शायद वो गांव छोड़कर शहर आती ही नहीं. अगर उसके पास जमीन होगी ही नहीं तो वो सारी ज़िन्दगी ये झाड़ू पोछा ही करती रहेगी .उसका पति हमेशा गाँव में ही रहा .उसे भी मजदूरी करनी पड़ेगी .रखा हुआ धन कितने दिन चलता है.
एक जमीन अधिग्रहण ऐसा भी
Sharad Shrivastav
दिल्ली मे कामन वेल्थ गेम के समय बहुत से नए फ्लाई ओवर बने थे.नेहरू प्लेस से एनएच 8 तक की रोड को सिग्नल फ्री करने के लिए उस पर बहुत से फ्लाई ओवर बनाए गए.लेकिन अंतिम फ्लाई ओवर राव तुला राम मार्ग का फ्लाई ओवर 6 लेन की जगह सिर्फ 2 लेन का बनाया गया.बाकी फ्लाई ओवर बनाने के लिए लोगों की दुकाने तोड़ी गयी, मकान हटाये गए.लेकिन ये सब कुछ राव तुला राम पर नहीं हो सका.आज उस 2 लेन फ्लाई ओवर की वजह से घंटो का जाम लगे रहने की आम मुसीबत है.लोग फँसते है, पेट्रोल जलाते हैं अपना कलेजा जलाते हैं, सरकार को इस 2 लेन फ्लाई ओवर की वजह से कोसते हैं और आगे बढ़ते हैं.
सवाल है की ये फ्लाई ओवर 2 लेन का ही क्यों बना, बाकी फ्लाई ओवर की तरह 6 लेन का क्यों नहीं.जवाब है इस फ्लाई ओवर के एक तरह बसे लोग, जो बहुत प्रभावशाली हैं.जिनमे चैनल पर बोलने वाले प्रसिद्ध न्यूज़ एंकर भी हैं.इन लोगों के घरों की जमीन ही एक बीघे से ऊपर है.दिल्ली के पॉश इलाके मे 1 बीघे जमीन का मतलब आप समझते ही होंगे की वहाँ बसे लोग कैसे होंगे.खैर सवाल उनकी जमीन का भी नहीं था.सरकार को फ्लाई ओवर बनाने के लिए उनकी जमीन नहीं चाहिए थी.उनके घर के बाहर की सर्विस लेन चाहिए थी, जो वैसे ही सरकारी थी.लेकिन प्रभाव तो अब ऐसा ही होता है.बाज लोगों ने वो भी नहीं लेने दी.
नतीजा आज सामने है.तो साहब जमीन अधिग्रहण का एक रूप ये भी है.सवाल सिर्फ कानून बनाने का नहीं कहाँ किस पर लागू करना है इस नीयत का भी है.जमीन सिर्फ किसान की ही नहीं ली जाती, शहरो मे भी जमीन ली जाती है.इस कानून की मार सब पर है, लेकिन एक बराबर नहीं. यूपी के एक छोटे शहर मे रेलवे क्रासिंग पर फ्लाई ओवर इसलिए न बन सका क्योंकि मंत्री महोदय अपने घर की बाउंडरी गिराने को तैयार न हुए, थोड़ी सी जमीन छोड़ने को तैयार न हुए.वो फ्लाई ओवर वहाँ से तीन किलोमीटर दूर बनाना पड़ा.

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

फरवरी इतनी गरम हो गयी है या सरकार की आंखों का पानी सूख गया है


पिछले दो दिन से फेसबुक पर किसान और उसकी जमीन पर उसके हक की बातें की जा रही हैं. यह अच्छा अवसर है वरना फेसबुक पर किसान और जमीन की बातें कहां होती थीं. अभी भी माहौल बदलने लगा है. कोई मदर टेरेसा विवाद की ओर बहक रहा है, कोई लप्रेक में उलझा है तो कोई क्रिस गेल की जै-जैकार कर रहा है. इस बीच कुछ लोगों ने बड़ी रोचक टिप्पणियां की हैं. ये टिप्पणियां आपके लिए छांट कर लाया हूं. मौका निकाल कर पढ़ें, इस अबूझ मसले को समझने में थोड़ी मदद मिलेगी....
Rajneesh Dhakray
उनके पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें हैं और कई तो नंगे पैर भी हैं. पैरों में बिवाईयों की नालियाँ बनी हुई हैं ऐसे में सीधे से खड़ा न हुआ जाये और वे सैकड़ों किलोमीटर चल रहे हैं रोज 12-14 किलोमीटर. एक वक़्त का खाना और रात गुजारने के लिए सिर के ऊपर खुला आसमान तो नीचे कंकरीली काली सड़क. फरबरी इतनी भी गरम नहीं होती कि रात को सिर्फ पतले कम्बल या चादर से ठण्ड बचाई जा सके. वे हज़ारों की संख्या में पंक्तिबद्ध होकर चल रहे हैं. दिल्ली उनसे उनकी जीविका छीनने की तैयारी में है और वे सत्याग्रह कर रहे हैं. स्वतंत्र (?) भारत में खुद के चुने हुए प्रतिनिधियों से गिड़गिड़ा रहे हैं कि उनकी ज़मीनें उनसे न छीनी जाएं, उनके जंगल जो हज़ारों सालों से उनका घर है उससे उनको बेदखल न किया जाए.
क्या एक नागरिक को उसके देश में एक टुकड़ा ज़मींन का हक़ नहीं होना चाहिए, जिस मिट्टी हवा पानी से उसका शरीर बना हुआ है क्या वही उसे उस देश का नागरिक बना देता है. इस सत्याग्रहियों की टोली में आदमी, औरत बच्चे सब हैं हर उम्र के हैं. बूढी अम्मा, अधेड़ चाची, युवा भाभी और युवतियाँ, बच्चियाँ. क्यों चल पड़े हैं ये लोग अपने घरों से, ये न पढ़े लिखे हैं और न ही इन्हें कानून की समझ है ये सरकार की विकास नीति भी नहीं समझते फिर क्यों ऐसे असह्यः कष्ट झेलते हुये दिन रात एक किये हुए हैं. वजह है इसके पीछे और इस वजह की समझ किसी किताब को पढ़कर या सेमिनार अटेंड करके नहीं आई है, उन्होंने ज़िन्दगी की किताब पढ़ी है, जीने की ज़द्दोज़हद का सेमिनार अटेंड किया है. एक रोटी, एक गमछा, एक पैरासिटामोल को तरसती ज़िन्दगियों को ख़त्म होते देखा है और यही उनकी पाठशाला है.
एक किसान अपनी जमीन से सिर्फ अपना पेट नहीं भरता बल्कि दस अन्य भूमिहीनों की जीविका भी उसी ज़मीन पर निर्भर होती है. अधिग्रहीत भूमि पर भूस्वामी को उचित मुआवजा (?)- जिसमें भूमि के मूल्य का दोगुना या तीनगुना मूल्य और एक परिजन को नौकरी देना शामिल हो सकता है- देकर क्या उस भूमि के वास्तविक मूल्य की भरपाई हो सकती है? फिर उन भूमिहीनों का क्या होगा जो परोक्ष रूप से उस जमींन से रोजगार पाते हैं और अपना एवं अपने परिवार का पेट भरते हैं, उन्हें क्या मुआवज़ा मिला कौन सी नौकरी मिली? जितने उद्योग लगते हैं इनमें किन्हें नौकरी मिलती है और किसका विकास होता है, इन प्लांट्स में काम करने वाला एक अदना सा चपरासी उन लोगों से जो कभी उस भूखंड के मालिक हुआ करते थे, कैसा हिकारत भरा व्यवहार करते हैं!
एक इंसान को 10-15-20 हज़ार की नौकरी के एवज़ में 10 लोगों की 5-5 हज़ार रूपये की आमदनी नहीं छीनी जा रही. ये कैसा विकास है? और एक इंसान को रोजगार देकर बाकी के 9 लोगों को भुखमरी की हालत में नहीं छोड़ा जा रहा? क्या फरबरी इतनी गरम हो गई जो इन पूंजीपतियों की सरकारों की आँख का पानी ही सूख गया? नहीं जनाब फरबरी इतनी भी गरम नहीं है बस एक रात खुले आसमान के नीचे बिताइये.
Rakesh Kumar Singh
अपने डेढवर्षीय संक्षिप्‍त कॉर्पोरेट कम्‍युनिकेशन काल में भूमिअधिग्रहण में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार का साक्षात भागीदार रहा हूं. दो थर्मल पावर प्रोजेक्‍ट्स के लिए लैंड एक्वायर होते देखा है. जनता की आवाज़ दबाने और उसके विरोध को समर्थन में तब्‍दील करने के जालिमाना नुस्‍खों के बारे में सुनेंगे तो होश फाक्‍ता हो जाएंगे आपके. पर्यावरणा के लिए होने वाली जनसुनवाई को 'सफल' बना लेने के बाद, कंपनी के कारिंदे बैठकर समर्थन का पोस्‍टकार्ड लिखते हैं, जो कलेक्‍टर की रिपोर्ट के साथ नत्‍थी होकर राजधानी में श्रमश्रक्ति भवन स्थित पर्यावरण मंत्रालय आते हैं. मंजूरी सुनिश्चित कराने. रात के जिस पहर में ये तैयारियां चल रही होती हैं, प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव के कमरे में हड्डी, बोतल, गड्डी समेत सारा इंतजाम टंच रहता है. एक कलेक्‍टर साहब को देखा, वे तबादले का फरमान हाथ में थाम लेने के बाद भी पर्यावरण जनसुनवाई की फाइल पर अपना दस्‍तखत दाग कर ही नयी पदास्‍थापना की ओर बढे.
ज़मीन ग़रीब किसानों की थी. आदिवासियों की भी थी. मुट्ठी भर अमीरों की भी थी. दलाल अमीरों में से चुने-बनाए गए थे. जिन्‍होंने, किसानों को जो जिस भाषा में समझे उस भाषा में समझाकर ज्‍यादातर ज़मीन कंपनी के हक में करवाए. जो रह गए उसको प्रशासन के साथ मिलकर कंपनी ने संभाला. जो न संभले उन्‍हें टेक्‍ल करने में पुलिस भी शामिल हो गई. उसके बाद भी जो बचे रह गए, वे रह गए. लड़ रहे हैं हक और आत्‍मसम्‍मान की लड़ाई. जिंदगी दूभर कर दी है संत्‍ता और कॉर्पोरेट ने मिलकर उनकी. अमूमन हर आने वाले घटनाक्रम की जानकारी शासन को होती है.
Arun Chandra Roy
दिल्ली के चारो ओर ध्यान से देखिये. किसान ख़त्म हो गए हैं. वे बिल्डर बन गए हैं. वे बिल्डिंग मेटेरियल के सप्लायर बन गए हैं. माल में बड़े शो रूम चला रहे हैं. उनके बच्चे एसयूवी में घूम रहे हैं. एनसीआर के तमाम डिस्को और पब उन्ही से गुलज़ार हैं. मुआवज़े का पैसा इसी पीढी में ख़त्म होने वाला है. हजारो हज़ार हेक्टेयर पर जहाँ गेहूं सरसों लहराते थे वहां पीलर उठ गए हैं. यह विकास है. और यह तमाम मेट्रो से लेकर बिहार झारखण्ड छतीसगढ़ ओडिशा में किसानो आदिवासियों से स्वावलंबन छीन रहा है. और रही सही कसर बीज खाद के दाम और सिंचाई की कमी कर रही है.
ये भी समझाया जा रहा है कि किसानी एक निकृष्ट पेश है. सीमान्त किसान की लगत पूरी नहीं हो रही है. ताकि कार्पोरेट फार्मिंग के लिए जमीन तैयार हो सके. दो दशको से बेरोकटोक ऐसा हो रहा है. सभी सरकारे शामिल रही हैं इसमें. उद्देश्य है कृषि पर निर्भरता और स्वावलंबन को ख़त्म करना. ये केवल धरने से यह नहीं होगा. बड़े आन्दोलन की जरुरत है इसके लिए. यह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से कही अधिक गंभीर समस्या है.
Anupam
कल सुबह मैं आ रहा हूँ. आपके घर. साथ में चार पुलिस वाले को भी लाऊंगा. आपका घर और ज़मीन मुझे चाहिए. चिंता मत करिए, मुफ्त में नहीं लूँगा. उसका मुआवाजा भी दूंगा लेकिन अपनी शर्त पर. आप मुझे नहीं बता सकते कि आपके घर की क्या कीमत है. आपके घर की कीमत तो मैंने खुद तय कर रखी है. मुझे दरअसल एक स्कूल बनाना है, देश के लिए. देश के विकास के लिए. मैं उस स्कूल से पैसे भी नहीं बनाऊंगा. सिर्फ समाज-सेवा करूँगा. बस आपका घर दो दिनों में खाली हो जाना चाहिए. मुआवजा मैं आपको एक हफ्ते में दे दूंगा. और बाद में अगर आपको स्कूल न दिखे तो वापिस घर मांगने मत आ जाना. हो सकता है मैं स्कूल न भी बना पाऊं, इसमें मेरी क्या गलती. और तो और, आप मेरे खिलाफ किसी अदालत में भी नहीं जा सकते.
जी हाँ, ठीक समझा आपने. मैं भूमि-अधिग्रहण वाले मुद्दे की तरफ ही संकेत कर रहा था. कुछ लोग हैं जो "विकास" और "प्रगति" के नाम पर लाये गए मोदी जी के इस अध्यादेश का समर्थन करते हैं. इतना ही नहीं, वो लोग मेरे जैसे लोगों को तो विकास-विरोधी भी मानते हैं. उन सभी दोस्तों से मेरा सवाल है कि कल सुबह कहीं मैं आपका ही घर कब्ज़ा करने आ गया तो? ..क्या करेंगे आप, क्या जवाब देंगे? सोच समझ के जवाब दीजियेगा.. कहीं आप भी विकास-विरोधी ना बन जाएँ.

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

आपदाओं को वरदान में बदलने के हुनरमंद कोसी के किसान भिखारी मेहता


2008 की भीषण बाढ़ के बाद बिहार के सुपौल जिले के ज्यादातर खेतों में रेत बिछी है, मगर जब आप भिखारी मेहता के खेतों की तरफ जायेंगे तो देखेंगे कि 30 एकड़ जमीन पर लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा आदि के पौधे लहलहा रहे हैं. महज 13 साल की उम्र में कॉपी-किताब को अलविदा कर हल पकड़ लेने वाले भिखारी मेहता को मिट्टी से सोना उगाने के हुनर में महारत हासिल है. वे 2004 की भीषण तूफान के बाद से लगातार जैविक तरीके से औषधीय पौधों की खेती कर रहे हैं. आज उनके खेत कोसी अंचल के किसानों के लिए पर्यटन स्थल का रूप ले चुके हैं. यह खबर आज के प्रभात खबर में प्रकाशित हुई इनकी कथा को आप भी जानें...
पंकज कुमार भारतीय, सुपौल
‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ को मूल मंत्र मानने वाले जिले के वीरपुर के किसान भिखारी मेहता कोसी के रेत पर जज्बे और उम्मीद की फसल उपजा रहे हैं. विषम परिस्थितियों के बीच से भी हमेशा नायक की तरह उभरने वाले भिखारी की जीवन गाथा संघर्षो से भरी है.वर्ष 2008 की कुसहा त्रसदी ने जब इलाके के किसानों को मजदूर बनने को विवश कर दिया तो भी भिखारी ने हार नहीं मानी और आज वह कोसी के कछार पर न केवल हरियाली की कहानी गढ़ रहे हैं बल्कि वर्मी कंपोस्ट उत्पादन के क्षेत्र में भी किसानों के प्रेरणास्नेत बने हुए हैं.
गरीबी ने हाथों को पकड़ाया हल
भिखारी ने जब से होश संभाला खुद को गरीबी और अभाव से घिरा पाया. पिता कहने के लिए तो किसान थे लेकिन घर में दो वक्त की रोटी भी बमुश्किल मिल पाती थी. अंतत: 13 वर्ष की उम्र में वर्ष 1981 में भिखारी मेहता ने किताब-कलम को अलविदा कहा और हाथों में हल को थाम लिया. मासूम हाथों ने लोहे के हल को संभाला तो गरीबी से जंग के इरादे मजबूत होते चले गये. लेकिन पहली बार ही उसने कुछ अलग होने का संदेश दिया और परंपरागत खेती की बजाय सब्जी की खेती से अपनी खेती-बाड़ी का आगाज पैतृक गांव राघोपुर प्रखंड के जगदीशपुर गांव से किया.
निभायी अन्वेषक की भूमिका
अगाती सब्जी खेती के लिए भिखारी ने 1986 में रतनपुरा का रुख किया. 1992 तक यहां सब्जी की खेती की तो पूरे इलाके में सब्जी खेती का दौर चल पड़ा. वर्ष 1992 में सब्जी की खेती के साथ-साथ केले की खेती का श्रीगणोश किया गया. फिर 1997 में वीरपुर की ओर प्रस्थान किया, जहां रानीपट्टी में केला और सब्जी की खेती वृहद स्तर पर आरंभ किया. वर्ष 2004 का ऐसा भी दौर आया जब भिखारी 40 एकड़ में केला और 20 एकड़ में सब्जी उपजा रहे थे. भिखारी के नक्शे कदम पर चलते हुए पूरे इलाके में किसानों ने वृहद् पैमाने पर केले की खेती आरंभ कर दी. यह वही दौर था जब वीरपुर का केला काठमांडू तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. इलाके के किसानों के बीच केला आर्थिक क्रांति लेकर आया और समृद्धि की नयी इबारत लिखी गयी.
2004 का तूफान टर्निग प्वाइंट
भिखारी जब केला के माध्यम से समृद्धि की राह चल पड़ा तो वर्ष 2004 अगस्त में आया भीषण तूफान उसकी जिंदगी का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ. पलक झपकते ही केला की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गयी और एक दिन में लखपती भिखारी सचमुच भिखारी बन गया. बावजूद उसने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. विकल्प की तलाश करता हुआ औषधीय खेती की ओर आकर्षित हुआ. वर्ष 2005 में भागलपुर और इंदौर में औषधीय एवं सुगंधित पौधे के उत्पादन की ट्रेनिंग ली और मेंथा तथा लेमनग्रास से इसकी शुरुआत की. रानीगंज स्थित कृषि फॉर्म में भोपाल से लाये केंचुए की मदद से वर्मी कंपोस्ट उत्पादन की नींव डाली. इस प्रकार एक बार फिर भिखारी की गाड़ी चल पड़ी.
कुसहा त्रसदी साबित हुआ अभिशाप
18 अगस्त 2008 की तारीख जो कोसी वासियों के जेहन में महाप्रलय के रूप में दर्ज है, भिखारी के लिए अभिशाप साबित हुई. हालांकि उसने अभिशाप को जज्बे के बल पर वरदान में बदल डाला. कोसी ने जब धारा बदली तो भिखारी का 20 एकड़ केला, 20 एकड़ सब्जी की खेती, 20 एकड़ लेमनग्रास, 20 एकड़ पाम रोज एवं अन्य औषधीय पौधे नेस्त-नाबूद हो गये. कंगाल हो चुके श्री मेहता को वापस अपने गांव लौटना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2010 में पुन: वापस वीरपुर स्थित फॉर्म हाउस पहुंचे.
रेत पर लहलहायी लेमनग्रास और मेंथा
कोसी ने जिले के 83403 हेक्टेयर क्षेत्र में बालू की चादर बिछा दी. जिसमें बसंतपुर का हिस्सा 21858 हेक्टेयर था. ऐसे में इस रेत पर सुनहरे भविष्य की कल्पना आसान नहीं थी. लेकिन प्रयोगधर्मी भिखारी ने फिर से न केवल औषधीय पौधों की खेती आरंभ की बल्कि नर्सरी की भी शुरुआत कर दी. वर्ष 2012 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार श्री मेहता के फॉर्म पर पहुंचे तो 30 एकड़ में लहलहा रहे लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा को देख भौंचक्क रह गये और वर्मी कंपोस्ट इकाई से काफी प्रभावित हुए. आज श्री मेहता रेत पर ना केवल हरियाली के नायक बने हुए हैं बल्कि 3000 मैट्रिक टन सलाना वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन कर रहे हैं. वर्मी कंपोस्ट की मांग को देखते हुए उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं लेकिन संसाधन आड़े आ रही है.
अब किसानों के बीच बांट रहे हरियाली
हरियाली मिशन से जुड़ कर श्री मेहता अब किसानों के बीच मुफ्त में इमारती और फलदार पेड़ बांट रहे हैं. उनका मानना है कि रेत से भरी जमीन में पेड़-पौधे के माध्यम से ही किसान समृद्धि पा सकते हैं. वे अपने सात एकड़ के फॉर्म हाउस को प्रशिक्षण केंद्र में तब्दील कर चुके हैं, जहां किसान वर्मी कंपोस्ट उत्पादन और औषधीय खेती के गुर सीखने पहुंचते हैं. कृषि के क्षेत्र में उनके समर्पण का ही परिणाम है कि उन्हें वर्ष 2006 में कोसी विभूति पुरस्कार और 2007 में किसान भूषण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. वर्ष 2014 में जीविका द्वारा भी उन्हें कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत किया गया. बकौल भिखारी मेहता ‘जमीन में असीम उर्जा होती है, तय आपको करना है कि कितनी दूर आप चलना चाहते हैं’.

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

उड़िया गया यूरिया, मच रही है लूट


बासुमित्र
यूरिया की कालाबाजारी एवं किल्लत को लेकर बुधवार को मधेपुरा में किसानों का आक्रोश फूट पड़ा. मधेपुरा के मुरलीगंज में स्थिति इतनी भयावह हो गयी कि किसान ट्रक पर लदी खाद बोरियां लूट ले गये. उपद्रव कर रहे किसानों को नियंत्रित करने के लिए एसपी आशीष भारती को खुद मोरचा लेना पड़ा, तब जाकर शाम चार बजे तक हालत काबू में आये. कई महीनों से किसान यूरिया की किल्लत से परेशान थे. बुधवार की अहले सुबह किसानों को सूचना मिली कि दो ट्रक खाद एक एजेंसी के गोदाम पर पहुंचनेवाला है. सुबह तीन बजे ही हजारों की संख्या में किसान एजेंसी की दुकान व गोदाम के पास पहुंच गये. वहां किसानों को पता चला कि ट्रक बेंगा नदी के किनारे लगा हुआ है. इसके बाद किसान कई भाग में बंट कर प्रदर्शन व नारेबाजी शुरू कर दी. एक गुट नदी के किनारे लगे ट्रक के पास पहुंच कर खाद की बोरियां लेकर भागने लगे. सूचना पर थानाध्यक्ष, बीडीओ व सीओ मौके पर पहुंचे और किसानों से पंक्तिबद्ध होकर खाद लेने के लिए समझाया. किसान मान गये. इसके बाद अधिकारियों ने किसानों को बीएल हाइस्कूल के मैदान पर खाद वितरण होने की बात कही. जब किसान बीएल हाइस्कूल पहुंचे, तो वहां खाद का ट्रक नहीं देख आक्रोशित होकर थाने पर हमला बोल दिया.
पंद्रह दिन पहले ही पटवन हो चुका है. खेत में गेहूं मक्का के फसल लहलहा नहीं रहे हैं. किसान यूरिया के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं. लेकिन यूरिया बाजार से गायब है. चौक-चौराहे से लेकर गली मोहल्ला के खाद-बीज की दुकानों पर यूरिया की खोज कर निराश लौट जाते हैं. हर साल खेती के समय यही आलम होता है. जमाखोरी और कालाबाजारी के कारन यूरिया बाजार से गायब हो जाती है और किसान लाचार और बेबस हो जाते है. 335 से 350 रुपये प्रति पैकेट बिकने वाला यूरिया 500 से 550 रुपये की दर से चोरी छिपे बिक रहा है. अपनी खेती और फसल बचाने के चक्कर में किसानों की जेब ढीली हो रही है.
पेशे से मास्टर धमदाहा के चन्द्रशेखर मरांडी ब्लैक में 500 रुपये प्रति बोरा की दर से यूरिया खरीद कर भी खुश हैं. चलो पैसा जो ज्यादा लगा कम से कम फसल तो बच गयी वरना यूरिया के बिना फसल तो मार ही खा जाती.
खोजे ही नहीं मिल रहा यूरिया
सब किसान चंद्रशेखर की तरह खुशनसीब नहीं है. वैसे किसान जिसकी जीविका का प्रमुख्य साधन खेती-किसानी ही है, उसकी स्थिति और ज्यादा खराब है. वे लगातार 15 दिनों से दुकान का चक्कर लगा रहे हैं. गेहूं की खेती कर रहे रामचंद्र युवा किसान है. रामचंद्र बताते हैं की इस साल 5 बीघा में गेहूं बोया था, पटवन हो चुका है. यूरिया के लिए रोज 10 किलोमीटर का सफर तय कर बाजार तक आते हैं. दुकान-दुकान पूछ -पूछ कर थक चुके हैं लेकिन कही जुगार नहीं बैठ रहा है. खेती-किसानी के समय यूरिया की किल्लत होगी तो कैसे खेती होगी. यूरिया के बिना अनाज ही नहीं होगा सब चौपट हुआ जा रहा है.
महीने भर से चल रहा है लुकाछिपी का खेल
ऐसा नहीं है की यूरिया की किल्लत अचानक से सामने आयी है. एक माह से कीमत और स्टॉक का खेल चल रहा है. आम दिनों में 350 रुपये में बिकने वाला यूरिया 450 रुपये में चोर बाजार में बिकना शुरू हो गया था. लोग जरूरत और मजबूरी के नाम पर ऊंची कीमत पर खरीद भी रहे थे. जैसे-जैसे बोने का सीजन ख़त्म हुआ यूरिया का दाम भी सर चढ़ने लगा.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

नमस्कार ! यह भेल्दी बुलेटिन है..


बिहार के सारण जिले के पंचायत भेल्दी में पिछले एक साल से अनूठे बुलेटिन का प्रसारण हो रहा है. इस बुलेटिन में गांव का एक जागरूक युवक गीत-संगीत के साथ सरकारी योजनाओं की जानकारी का नियमित प्रसारण लाउडस्पीकर लगा कर कर रहा है. पिछले दिने प्रभात खबर में यह अनूठी खबर प्रकाशित हुई थी. अब आपके लिए...
सारण जिले में ऐसा पंचायत है जिसका अपना रेडियो स्टेशन है और रेडियो स्टेशन के माध्यम से पंचायत के नागरिकों को सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों के बारे में प्रतिदिन नियमित रूप से जानकारी दी जाती है. नमस्कार, यह भेल्दी बुलेटिन है, से समाचार की शुरुआत होती है. इस अनूठे रेडियो स्टेशन की स्थापना पंचायत के निवासी स्नातक उत्तीर्ण युवक राहुल कुमार सिंह ने की है और इसका संचालन भी वह अपने निजी प्रयासों से कर रहे हैं. परसा प्रखंड में पड़ने वाली भेल्दी पंचायत के करीब आधा दर्जन गांवों में इस रेडियो स्टेशन के माध्यम से सुबह-शाम तथा दोपहर को प्रसारण करने की व्यवस्था है. मुख्य रूप से पंचायत क्षेत्र में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों, कार्यान्वित होने वाली योजनाओं, बैठक, आम सभा, ग्राम सभा तथा सरकार द्वारा जारी सूचना आदि का मुख्य रूप से प्रसारण किया जाता है. प्रतिदिन शाम साढ़े सात बजे से लेकर साढ़े आठ बजे तक समाचार का प्रसारण होता है, जिसमें पंचायत क्षेत्र की घटनाओं, विकास संबंधित योजनाओं, इंदिरा आवास के लाभार्थियों की सूची, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, सामाजिक सुरक्षा योजना के लाभुकों की सूची का प्रसारण किया जाता है. इस रेडियो स्टेशन के माध्यम से योजनाओं तथा लाभार्थियों की सूची का प्रसारण किये जाने से न केवल हकदारों तक पारदर्शी तरीके से योजनाओं का लाभ पहुंच रहा है बल्कि दलालों तथा बिचौलियों पर लगाम लगाने में भी काफी हद तक सफलता मिली है.
इस तरह होता है प्रसारण
पंचायत के भेल्दी गांव में रेडियो स्टेशन का मुख्यालय जहां से तार के जरिये भेल्दी, यादवपुर, भेल्दी नवादा, गोपालपुर, लगनपुरा आदि गांवों तक लाउडस्पीकर लगाया गया है. पंचायत में बिजली नहीं रहने के कारण प्रसारण के समय जेनरेटर का प्रयोग किया जाता है. सुबह में भक्ति गीतों के साथ प्रसारण की शुरुआत होती है. दोपहर में सूचनाओं के प्रसारण के अलावा मनोरंजन के लिए फिल्मी गीतों का भी प्रसारण होता है. पंचायत क्षेत्र में होने वाले खेलकूद, स्कूलों में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के भी बारे में श्रोताओं को जानकारी दी जाती है. इस रेडियो स्टेशन की स्थापना करने वाले राहुल कुमार सिंह बताते हैं कि इसका कोई नामकरण अभी नहीं किया गया है. करीब एक वर्ष पहले इसकी शुरुआत फरवरी 2014 में की गयी थी. तीन भाई तथा दो बहन में सबसे छोटे राहुल सिंह मुख्य रूप से भारतीय सेना के कैंटिन में मनीपुर इंफाल में फूड सप्लाइ का कारोबार करते हैं और इसी कार्य में उनके एक भाई सहयोग करते हैं. आर्थिक रूप से संपन्न राहुल के मन में गांव तथा पंचायत वासियों के लिए कुछ करने की ललक ने यह अनूठा प्रयास करने को विवश किया जो आज धरातल पर उतर चुका है. पंचायत में कोई भी नयी बात होती है तो ग्रामीण भी इस रेडियो स्टेशन तक प्रसारण के लिए सूचना पहुंचाते हैं. इस स्टेशन के माध्यम से सूचनाएं प्राप्त करने के लिए श्रोताओं को किसी प्रकार का खर्च भी नहीं करना पड़ता है और न ही उन्हें कोई उपकरण रखने की जरूरत है. बस प्रसारण के समय अपने पंचायत के किसी भी गांव में रहने भर की जरूरत पड़ती है. लगभग सभी गांवों के चौक -चौराहों पर पर्याप्त संख्या में स्थायी रूप से लाउडस्पीकर लगे हुए हैं. जिससे प्रसारित होने वाली सूचनाएं, भक्ति गीत और मनोरंजन से जुड़े कार्यक्रम आसानी से सुनने को मिल जाती है.
साभार- प्रभात खबर

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

79 दिन से खरीद के इंतजार में पड़ा है धान


यह एक किसान का दर्द है. यह किसान पहले पत्रकार था और दिल्ली में अच्छी खासी नौकरी कर रहा था. मगर उसने तय किया कि वह अपने गांव में जाकर खेती करेगा और दुनिया के इस प्राचीनतम पेशे से जुड़कर गौरवान्वित महसूस करेगा. चिन्मयानंद सिंह काफी संवेदनशील युवा हैं और खेती के साथ-साथ फेसबुक पर भी काफी सक्रिय रहते हैं और गांव की मधुरता को हमारे लिए पेश करते हैं. आज उनकी वाल पर एक उदास करने वाली पोस्ट थी, जिसे पगडंडी आपके सामने साझा कर रहा है. इस विडंबना को समझने के लिए कल की पोस्ट किसानों को देश निकाला दे दीजिये हुजूर... को भी पढ़ा जाये.
आज #खलिहानडायरी में दर्द बयां कर रहा हूं। इस तरह बिखरे हुए धान के लिए बिहार सरकार जिम्मेदार है। पिछले 79 दिनों से यह धान पैक्स द्वारा अपनी खरीद का इंतज़ार कर रहा है, और रोज़ ही तारीख बढ़ती जाती है। इधर चूहों और गिलहरियों का खेल जारी है। आज मन चिढ़ा हुआ है अब,पिताजी ने भी अल्टीमेटम दे दिया है कि अपनी जिद छोड़ो और बाज़ार में बेच लो। मेरी जिद पर ही धान को रोककर रखा गया था, नहीं तो कब का ही इसे 1600₹ की जगह 950₹/क्विंटल की दर से बेच दिया जाता। अब लगता है कि इसके कपार में ही नहीं लिखा हुआ है अच्छा दाम पाकर बिकना। आखिर किसान का घर फसल बेच कर ही चलता है ना, कितने दिन तक इंतज़ार करेगा किसान भला? और दो-चार दिन में नहीं होगी अगर धान की अधिप्राप्ति....तो फिर बेच देंगे ऐसे ही। #खलिहानडायरी

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

किसानों को देश निकाला दे दीजिये हुजूर...


कहने को बिहार सरकार ने किसानों की धान की देश में सबसे ऊंची कीमत 1560 रुपये प्रति क्विंटल देने की घोषणा कर दी है, मगर हकीकत है कि राज्य के अधिकतर इलाकों में घोषणा के दो माह बीत जाने पर ही धान खरीद केंद्र अब तक नहीं खुले हैं. जहां खुले भी हैं वहां सौ अड़गे और बहानेबाजी, लिहाजा किसान इस बार खरीफ की पैदावार लेकर बिचौलियों की शरण में जाने को विवश हैं. वहां उन्हें 1100 रुपये प्रति क्विंटल से अधिक मिलने की कोई सूरत ही नहीं बन रही है. यह स्थित तकरीबन बिहार के हर इलाके की है. यहां बासुमित्र ने पूर्णिया जिले के धमदाहा अनुमंडल के किसानों के जमीनी हालात को बताते हुए यह समझने-समझाने की कोशिश की है कि आखिर जमीन पर घट क्या रहा है... दिल्ली में सत्ता के उखाड़-पछाड़ और ओबामा के आने की रौनक के बीच इस खबर को भी पढ़े जाने की जरूरत है. क्योंकि सोशल मीडिया के इस दौर में भी इस बात का इंतजाम अब तक नहीं हो पाया है कि इंसान बिना कुछ खाये जिंदा रह सके....
(तसवीर के लिए प्रशांत चंद्रन का आभार)
पिछले साल के नवंबर महीने में धमदाहा के किसानों की बोली में जो ठसक थी वह इन दिनों गायब है. उनके मुंह से बकार नहीं फूट रहा. घर धान से भरे हैं, मगर बुद्धि काम नहीं कर रहा है कि बेचें कि बचा लें. पैकार(व्यापारी) का भाव ग्यारह से उपर नहीं जा रहा. पिछले दो माह से लोग रोज पैक्स जाकर देखते हैं कि सरकारी खरीद केंद्र खुला कि नहीं. अखबारों में 1560 रुपये के भाव के दावे भी पुरानी फिल्म के पोस्टर की तरह उतर गये हैं. कहीं कोई धान खरीद की बात नहीं कर रहा. न पक्ष, न विपक्ष. रोज दरवाजे पर धान को फैला देते हैं कि नमी की कमी बरकरार रहे, कहीं फफूंद न लग जाये... और पता लगाते रहते हैं कि कहीं कोई पैकार ज्यादा भाव तो नहीं दे रहा.
पूर्णिया जिले का कृषि विभाग बताता है कि इस बार जिले में लक्ष्य से अधिक धान की खेती की गयी है. जिला कृषि पदाधिकारी इन्द्रजीत प्रसाद सिंह कहते हैं, विभाग से तो सिर्फ 98 हजार हेक्टेयर जमीन पर धान की खेती का लक्ष्य आया था, जबकि किसानों ने 1 लाख 2 हजार हेक्टेयर में धान रोप दिया. हालांकि इससे किसानों को कोई नुकसान नहीं हुआ. किसान इंद्र भगवान को दोष नहीं देते हैं, कहते हैं, भले शुरुआत पानी कम पड़ा मगर जाते-जाते कसर पूरी कर दिया. ऐसे उपज भी जोरदार हुई. धान की बाली को देखकर किसान मूंछ पर ताव दे रहे थे कि इस बार तो मकई के नुकसान का कसर भी निकल जायेगा. पिछले सीजन में मक्के की फसल गड़बड़ा गयी थी.
गांव के किसान नवीनचंद्र ठाकुर कहते हैं, किसानों के साथ यही होता है. कभी उपरवाले की मार तो कभी सरकार की बेवफाई... जब मौसम खराब होता है तो हमलोग मन मसोस कर रह जाते हैं. मगर जब बंपर पैदावार हो और फसल का पैसा ठीक से नहीं मिले तो समझ नहीं आता, क्या करें. उड़ती-उड़ती खबर है कि सरकार इस बार धान खरीदना ही नहीं चाहती. एक तो सरकारी गोदाम पहले से फुल है, फिर सुन रहे हैं खाद्य सुरक्षा के कानून में भी कटौती होने वाली है. इसलिए मीडिया में सरकारी खरीद का ढोल जरूर पीटा जा रहा है, मगर सरजमीन पर ऐसा इंतजाम किया गया है कि क्या कहें... देख ही रहे हैं, फरवरी में भी क्रय केंद्र नहीं खुला है...
नवीन जी तो थोड़े समृद्ध किसान हैं. वे थोड़ा नफा-नुकसान झेल लेते हैं. मगर लीज पर खेत लेकर खेती करने वाले छोटे किसान तो धान की बात पूछने पर ही बमक उठते हैं. नागिया देवी कहती हैं, पहले जहां 3 से 4 हजार रुपये में एक बीघा जमीन लीज पर मिल जाता था, अब लीज का रेट भी दो गुना से अधिक बढ़ गया है. उसने बेटी की शादी के लिए सूद पर पैसा लिया था. सोचा था, धान बेचकर कर्ज चुका देगी. अब तो महाजन के सामने जाने में डर लगता है.
बटाई पर खेती करने वाले मनोहर बताते हैं, हमने पंप सेट चलाकर पटवन किया था. डीजल अनुदान का पैसा भी टाइम पर नहीं मिला. पता चला कि पैक्स में इस बार धान का रेट 1560 रुपया हो गया है, हम उसी उम्मीद में थे. अब आधा धान 1050 रुपया के रेट से बेचे हैं, बांकी बचा कर रखे हैं कि कहीं रेट बढ़ जाये या खरीद केंद्र ही खुल जाये...
लीज पर खेती करने वाले ब्रह्म मुनि बताते हैं, चाहे धान की खेती हो मक्के की किसानी गरीबों के बस से बाहर होती जा रही है. खेत जुताई से लेकर खाद-बीज और मजदूरी तक बढ़ती जा रही है जिस कारण से खेती की लागत पहले की तुलना में काफी बढ़ गयी है. धान की खेती का हिसाब पूछने पर वे कहते हैं, अगर लीज ले कर खेती की जाय तो एक बीघा धान की खेती में 12 से 13 हजार रुपये का खर्च आ जाता है. वहीं एक बीघा में 16 से 20 क्विंटल धान उपजता है. किसान परिवार लगातार 4 महीने की मेहनत के बाद मुश्किल से 6 से 7 हजार रुपये बचा पाता है वो भी तब फसल अच्छी हो और धान का सही कीमत मिले. मगर इस बार तो उस पर भी आफत है... सरकार तो 1560 रुपया का रेट ब्रोडकास्ट(ब्रॉडकॉस्ट) करके ताली पिटवा रही है, यहां एक कोई एक कनमा धान खरीदने के लिए तैयार नहीं है. इससे अच्छा तो किसानों को देश निकाला दे दीजिये हुजूर...

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

सलमान खान ने बदली एक गांव की रंगत


महाराष्ट्र का एक छोटा सा गांव है कर्जत. जैसे देश के दूसरे गांव होते हैं वैसा यह गांव भी है. जीवन में रंग भरने की कोशिश में मकानों के रंग बदरंग हो जाते हैं. जिन लोगों के पास संसाधन के नाम पर कुछ नहीं होता उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि दीवारें बोल रही हैं या नहीं. तो कर्जत गांव के पास ही सलमान खान की बजरंगी भाईजान नाम की फिल्म की शूटिंग कर रही थी. तभी अचानक एक दिन पूरी यूनिट उठकर कर्जत गांव आ गयी. उनके हाथ में रंग और कूचियां थीं औऱ उन्होंने पूरे गांव की रंगत बदल दी. कैसे यह किया उसे इस वीडियो में देखा जा सकता है...
इन दोनों लिंक पर क्लिक करें
सलमान के फेसबुक वाल पर वीडियो
यूट्यूब पर वीडियो

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

एक तरफ फुकोशिमा तो एक तरफ चुटका


एटॉमिक एनर्जी के जरिये देश को जगमग कर देने का सपना हर शहरी भारतीय को लुभाता है. मगर अगर उनके पड़ोस में एटॉमिक पावर प्लांट खुलने की योजना बन जाये तो क्या वे चैन से रह पायेंगे? खास तौर पर अगर उन्हें फुकोशिमा और चेरनोबिल एटॉमिक प्लांट के हादसों की जानकारी हो? कुछ ऐसा ही पिछले दिनों मध्यप्रदेश के चुटका गांव के लोगों के साथ हुआ. सरकार ने वहां एटॉमिक पावर प्लांट खोलने का फैसला ले लिया था. मगर गांव वालों के मजबूत प्रतिरोध की वजह से प्लांट का मसला खटाई में पड़ गया. चुटका का प्रकरण हमें एटॉमिक पावर प्लांट के असली खतरे की ओर इशारा करता है और साथ ही यह भी बताता है कि भारतीय गांव अब इतने नासमझ नहीं रहे कि इन्हें कोई भी बहलाकर ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा कर दे. यह प्रकरण भारत में परमाणु ऊर्जा के भविष्य की झलक देता है. चुटका गांव के इस अनूठे संघर्ष की कहानी मित्र प्रशांत दुबे ने लिखी है. वह हम यहां पेश कर रहे हैं. इस आलेख के लिए हम तरकश ब्लॉग के आभारी हैं.
प्रशांत कुमार दुबे
चुटका परमाणु विद्युत परियोजना को लेकर सरकारी महकमे, सम्बंधित कंपनी, उसके कर्मचारी और कथित रूप से पढ़ा-लिखा एक वर्ग जानना चाहता है कि सिरफिरे आदिवासी आखिर विकास क्यों नहीं चाहते? रोजगार और विकास की आने वाली बाढ़ की अनदेखी कर ये अपने अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहते हैं? भारत सरकार और जनप्रतिनिधियों के प्रति अहसानमंद होने के बजाए ये लोग उल्टा सरकार को क्यों कटघरे में खड़ा कर रहे हैं?
मध्यप्रदेश के मंडला जिले में दो चरणों में 1400 मेगावाट परमाणु बिजली पैदा करने वाली इस परियोजना की योजना सन् 1984 में बनी थी. इसकी आरंभिक लागत 14 हजार करोड़ रुपए तथा इस हेतु 2500 हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी. अक्टूबर 2009 से केन्द्र सरकार ने इस परियोजना को आगे बढ़ने की अनुमति दे दी है. सरकार इसे 2800 मेगावाट तक विस्तारित करना चाहती है और जिसके चलते 40 गांवों को खाली कराना होगा. इस परियोजना के निर्माण का ठेका परमाणु विद्युत कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (आगे हम इसे कम्पनी कहेंगे) को दिया गया है. सरकार का कहना है इससे स्थानीय लोगों व आदिवासियों को रोजगार मिलेगा. यह एक सस्ती और बढि़या पद्धति है. इतना ही नहीं विस्थापित होने वाले प्रत्येक परिवार को भारत का परमाणु बिजली निगम मुआवजा देगा.
यह बातें तो अनजान शहरी वर्ग को और इस परियोजना के पक्ष में खड़े लोगों को आकर्षित करती हैं. वैसे ठेठ निरक्षर आदिवासी लोग इसके पीछे छिपे उस अप्रत्यक्ष कुचक्र की बात कर रहे हैं। जिसके विषय में ना ही कोई सरकारी व्यक्ति और ना ही कोई सरकारी रिपोर्ट बात कर रही है. आदिवासियों का मानना है कि जब हमारे पास ऊर्जा के दूसरे, सस्ते और नुकसान रहित विकल्प मौजूद हैं तो फिर सरकार आंख मूंदकर परमाणु उर्जा के पीछे क्यों भाग रही है.
आदिवासी जान गए हैं कि परमाणु बिजलीघर से पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक विकिरणीय कचरा पैदा होता है. यूरेनियम से परमाणु ऊर्जा निकलने के बाद जो अवशेष बचता है वह 2.4 लाख साल तक तीव्र रेडियोधर्मिता युक्त बना रहता है. दुनिया में इस कचरे के सुरक्षित निष्पादन की आज तक कोई भी कारगर तकनीक विकसित नहीं हो पाई है. यदि इसे धरती के भीतर गाड़ा जाता है जो यह भू-जल को प्रदूषित और विकिरणयुक्त बना देता है. उनका सवाल है, रूस के चेर्नोबिल और जापान में फुकोशिमा जैसे गंभीर हादसों के बाद तथा अमेरिका जैसे परमाणु उर्जा के सबसे बड़े हिमायती देश द्वारा भविष्य में कोई भी नया परमाणु विद्युत संयत्र लगाने का फैसला तथा पिछले पिछले चार दशकों में अब तक 110 से ज्यादा परमाणु बिजली घर बंद करने के बाद भी हमारी सरकार परमाणु ऊर्जा के प्रति इतनी लालायित क्यों है?
परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के शुरू होने से भारत में अब तक 300 से भी ज्यादा दुघर्टनाएं हो चुकी हैं. लेकिन सरकार ने कभी इनके पूरे प्रभावों के बारे में देश की जनता को कुछ नहीं बताया. हमारे यहां झारखंड की जादुगुड़ा खान से यूरेनियम निकाला जाता है. वहां भी विकिरण के चलते लोगों के गंभीर रूप से बीमार होने और मरने तक की रिपोर्ट हैं. चुटका परमाणु संघर्ष समिति के लोग रावतभाटा और अन्य संयत्रों का अध्ययन करने के बाद जान पाए कि इन संयत्रों के आसपास कैसे जनजीवन प्रभावित हुआ है. संपूर्ण क्रांति विद्यालय बेडछी, सूरत की रिपोर्ट तो और आंख खोल देती है. रिपोर्ट के मुताबिक परमाणु संयंत्रों के आसपास के गांवों में जन्मजात विकलांगता बढ़ी है, प्रजनन क्षमता पर प्रभाव पड़ा है, निसंतानों की संख्या बड़ी है, मृत और विकलांग बच्चों का जन्म होना, गर्भपात और पहले दिन ही होने वाली नवजात की मौतें बढ़ी है. हड्डी का कैंसर, प्रतिरोधक क्षमता में कमी, लम्बी अवधि तक बुखार, असाध्य त्वचा रोग, आंखों के रोग, कमजोरी और पाचन तंत्र में गड़बड़ी आदि शिकायतों में वृद्धि हुई है.
परमाणु विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा, नई दिल्ली के राष्ट्रीय संयोजक, डॉ. सौम्या दत्ता बताते हैं कि कैसे इस परियोजना को लेकर भी सरकार और कम्पनी ने कदम-कदम पर झूठ बोला है या बहुत सारी बातों और चिंताओं को सार्वजनिक नहीं किया है. अव्वल तो यही कि कंपनी के निर्देशों के अनुसार परमाणु विद्युत परियोजनाओं को भूकंप संवेदी क्षेत्र में स्थापित नहीं किया जा सकता है. फिर भी राष्ट्रीय पर्यावरण अभियंत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर द्वारा तैयार जिस रिपोर्ट पर जन-सुनवाई रखी गई थी, उस रिपोर्ट में भूकंप की दृष्टि से उक्त क्षेत्र के अतिसंवेदनशील होने के तथ्य को छुपाया गया है, जबकि मध्यप्रदेश सरकार की आपदा प्रबंधन संस्था, भोपाल द्वारा मंडला और जबलपुर को अतिसंवेदनशील भूकंपसंवेदी क्षेत्र घोषित किया है. उल्लेखनीय है कि 22 मई, 1997 को इसी क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 6.4 तीव्रता का भूकम्प आ चुका है, जिससे सिवनी, जबलपुर और मण्डला में अनेक मकान ध्वस्त हुए और अनेक मौतें भी हुई थीं. दूसरा तथ्य जो सार्वजनिक नहीं किया गया है वह यह कि केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (सी.ई.ए.) के अनुसार परमाणु बिजलीघर में 6 घनमीटर प्रति मेगावाट प्रति घंटा पानी लगता है. इसका अर्थ है कि चुटका परमाणु बिजलीघर से 1400 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए 7 करोड़ 25 लाख 76 हजार घनमीटर पानी प्रति वर्ष आवश्यक होगा. यह पानी नर्मदा पर बने बड़े बांधों में से एक बरगी बांध से लिया जाएगा! बरगी बांध के दस्तावेजों में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि इसका उपयोग केवल कृषि कार्यों और 105 मेगावाट विद्युत उत्पादन के लिए ही होगा, तो फिर यह पानी परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए कैसे जाएगा?
परमाणु संयंत्र से निकलने वाली भाप और संयंत्र को ठंड़ा करने के लिए काम में आने वाले पानी में रेडियोधर्मी विकिरण युक्त तत्व शामिल हो जाते है. भारत में अधिकांश परमाणु विद्युत परियोजनाएं समुद्र के किनारे स्थित हैं, जिनसे निकलने वाले विकिरण युक्त प्रदूषण का असर समुद्र में जाता है किन्तु चुटका परमाणु संयंत्र का रिसाव बरगी जलाशय में ही होगा. विकिरण युक्त इस जल का दुष्प्रभाव मध्यप्रदेश एवं गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे बसे अनेक शहर और गांववासियों पर पड़ेगा, क्योंकि वहां की जलापूर्ति नर्मदा नदी से ही होती है. इससे जैव विविधता के नष्ट होने का खतरा भी है.
मध्यप्रदेश की आदर्श पुनर्वास नीति कहती है कि लोगों के बार-बार विस्थापन पर रोक लगनी चाहिए. चुटका से प्रभावित लोग एक बार बरगी बांध के कारण पहले ही विस्थापित हो चुके हैं, ऐसे में इन्हें यहां से पुनः विस्थापित करना नीति का ही उल्लंघन है. वैसे भी मंडला जिला पांचवीं अनुसूची में अधिसूचित क्षेत्र है. पंचायत (अनूसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 – (पेसा कानून) के अंतर्गत ग्रामसभा को विशेष अधिकार प्राप्त हैं. चुटका, कुंडा और टाटीघाट जैसे गांवों की ग्रामसभा ने पहले ही इस परियोजना का लिखित विरोध कर आपत्ति जताई है, तो फिर उसे नजरंदाज करना क्या संविधान प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है?
सबसे गंभीर बात यह है कि ग्रामीणों को अँधेरे में रखने हेतु परियोजना की 954 पृष्ठों वाली रिपोर्ट सिर्फ अंग्रेजी में प्रकाशित की है और यह भी तकनीकी शब्दावली से भरी पड़ी है. अभी रोजगार दिए जाने जैसे सवालों पर बात नहीं हुई है. जब तक इस परियोजना के लिए कार्यालय /कालोनी आदि बनेगी, तब तक स्थानीय जनों को मजदूरी वाला काम उपलब्ध कराया जाएगा. खुद कम्पनी के दस्तावेज कहते हैं कि यह एक तकनीकी काम है और जिसके लिए उच्च प्रशिक्षित लोगों की जरुरत होगी? इस विपरीत दौर में एक राहत की बात यह है कि चुटका में भारी जनदवाब के चलते परमाणु परियोजना के लिए पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट पर की जाने वाली जनसुनवाई को पुनः रद्द कर दिया गया है. जनसुनवाई की आगामी हलचल अब संभवतः विधानसभा चुनावों के बाद ही सुनाई दे.

बुधवार, 28 जनवरी 2015

एक रेडियो स्टेशन जिसकी कमान है गांव की बेटियों के हाथ में


पिछले दिनों आपने पगडंडी पर मुजफ्फरपुर के गांवों की उन लड़कियों की कथा पढ़ी थी जो अपना वीडियो न्यूज कैप्सूल और अखबार निकालती हैं. उसी कड़ी में इस बार हमारे पर आपके लिए उन लड़कियों की कहानी है जो एक रेडियो चैनल को संचालित करती हैं. यह रेडियो स्टेशन बुंदेलखंड के ललितपुर जिले में संचालित होता है. इस रेडियो स्टेशन में रिपोर्टर, प्रेजेंटर और फील्ड कोऑर्डिनेटर सब लड़कियां ही हैं. अति पिछड़े और पुरुष वर्चस्व वाले इलाके में इन बेटियों ने कैसे इस असंभव काम को अंजाम दिया आइये इसकी कथा पढ़ते हैं.
उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त हिस्से बुंदेलखंड के ललितपुर जिले में एक ऐसा रेडियो स्टेशन संचालित हो रहा है जिसकी कमान जिले की बेटियों के हाथ में है. राज्य के इस पहले कम्युनिटी रेडियो 'ललित लोकवाणी' की कर्ताधर्ता रचना, उमा और विद्या नाम की लड़कियां हैं. रूढ़िवादी सोच वाले क्षेत्र से ताल्लुख रखने वाली इन बेटियों की आवाज आज ललितपुर के हर कोने में सुनी जाती है. 'ललित लोकवाणी' नामक कम्युनिटी रेडियो की शुरूआत साल 2007 में की गई थी और शुरुआत में इसका संचालन सिर्फ ललितपुर के कुछ गांवों में ही किया जाता था. इस स्टेशन को साल 2010 में वायरलैस आपरेटिंग लाइसेंस मिल गया था और अब यह 90.4 मेगाहर्ट्ज पर ललितपुर के अलापुर कस्बे के 15 किलोमीटर के दायरे में स्थित गांवों में आसानी से सुना जाता है.
रेडियो जॉकी रचना
रचना बताती हैं कि कम्युनिटी रेडियो में काम करने के बाद वो एक अलग शख्सियत बन गई हैं और अब उन्हें ललितपुर के रेडियो स्टेशन के जरिए अपने श्रोताओं से बात करना काफी अच्छा लगता है. पूरे गांव के लिए रोल मॉडल बन चुकी रचना यह बताना नहीं भूलती कि उन्हें वह दौर अब भी याद है जब उन्हें घर के किसी पुरुष सदस्य के बगैर घर के बाहर जाने की भी अनुमति नहीं थी. ललितपुर के बिरदा ब्लॉक के अलापुर में स्थित इस रेडियो स्टेशन में आकर काम करना उन्हें अच्छा लगता है. उन्हें अब भी विश्वास नहीं होता है कि वो एक रेडियो प्रोग्राम की रेडियो जॉकी बन चुकी हैं. वे अपने श्रोताओं से शिशु और मातृत्व मृत्यु दर जैसे मुद्दों पर बात करती हैं, जिससे उनका समुदाय काफी हद तक पीड़ित है.
रिपोर्टर उमा यादव हैं पांच बच्चों की मां
5 बच्चों की मां और कम्युनिटी रेडियो के 12 रिपोर्टरों में से एक उमा यादव की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. वो बताती हैं कि अभी तक गांव की कोई भी बहू महिलाओं से जुड़े मुद्दों की पत्रकारिता करने, उनकी रिकॉर्डिंग करने और उसके समाधान करने जैसे कामकाजों में हिस्सा नहीं लिया करती थी. उमा ने बताया कि उन्हें भी शुरुआत में तकलीफों का सामना करना पड़ा, यहां तक कि उनके परिवार ने तो पहले उन्हें इस काम को करने की इजाजत नहीं दी, लेकिन बाद में जब उन्हें अहसास हुआ उनका काम कितनी जागरूकता वाला है, तब जाकर वो थोड़ा नरम हुए और मुझे इसकी इजाजत दी. अपने काम को लेकर उमा कितनी कमिटेड के इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अपने घर के नियमित कामकाज निपटाने के बाद करीब तीन किलोमीटर का पैदल सफर तय कर अपने अलापुर स्थित रेडियो स्टेशन पहुंचती है और अपना शो होस्ट करती है, जहां वो महिलाओं और बच्चों से जुड़े तमाम मुद्दों पर बात करती हैं.
80 गांवों में सुना जाता है ललित लोकवाणी
रचना और उमा यादव उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले की नई संचार क्रांति का अहम हिस्सा हैं. 'ललित लोकवाणी' राज्य का पहला का पहला कम्युनिटी रेडियो स्टेशन है, जिसमें ये दोनों बखूबी काम कर रही हैं. अब ललित लोकवाणी ललितपुर के हर कोने में सुना जाता है. इस कम्युनिटी रेडियो स्टेशन का उद्घाटन ललितपुर के जिला मजिस्ट्रेट रनवीर प्रसाद और भारतेंदु नाटक अकादमी के संयुक्त निदेशक जुगल किशोर, जो खुद थियेटर की जानी मानी शख्सियत हैं ने किया था. आज यह ललितपुर के 80 गांवों में सुना जाता है. इस रेडियो की सबसे खास बात यह है कि यह महिलाओं को प्रेरित करता है कि वो रिपोर्टिंग और एंकरिंग जैसे क्षेत्रों में कदम रखकर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर अन्य महिलाओं को जागरूक करने का प्रयास करें.
पहले मजाक उड़ाते थे मर्द
25 साल की ग्रेजुएट शिल्पी यादव, जो ललित लोकवाणी में फील्ड को-आर्डिनेटर हैं बताती हैं कि शुरुआत में महिलाओं को यह समझाना काफी मुश्किल था कि वो हमारे कार्यक्रम को सुनें. उन्होंने बताया कि हमने छोटे स्तर से शुरुआत की. शिल्पी ने बताया कि पहले हम गांव-गांव जाकर लोगों के समझाते थे और उनसे कहते थे कि वो उनके साथ आएं और पंचायत भवन में आकर उनके कार्यक्रम को सुनें. उन्होंने बताया कि इस दौरान गांव के मर्द हमें घेरे रहते थे और हम रेडियो पर जिन मु्द्दों पर बात करते थे वो हमारा मजाक उड़ाया करते थे. उन्होंने बताया कि जल्द ही गांव के मर्दों को समझ में आ गया कि हम उनके भले की ही बात करने वाले हैं, इसलिए उन्होंने तंग करना छोड़ दिया और हालात आज यह है आज गांव के पुरुष भी हमारे कार्यक्रम को इत्मिनान के साथ सुनते हैं.
रामकृष्ण ऑडियोसिन्स मीडिया कंबाइन ने इस रेडियो स्टेशन के 15 सदस्यों को तैयार किया है. इस संगठन ने बताया कि कम्युनिटी रेडियो एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके जरिए लोगों को यह मौका मिलता है कि वो सरकार के साथ सीधे बात कर सकें. संगठन ने बताया ऐेसे में जब हम अभी सीमित दायरे में काम कर रहे हैं उसके बावजूद हम बेहतर काम कर रहे हैं और साथ ही हमें ललितपुर के लोगों की कुशलता बढ़ान के लिए भी बखूबी काम कर रहे हैं. इस रेडियो से जुड़ी एक अन्य सदस्या बताती हैं कि कम्युनिटी रेडियो के जरिए बेहतर तरीके से समाजिक बदलाव लाया जा सकता है. यह माताओं, बेटियों, बहनों को सामाजिक, शारिरिक और मानसिक स्तर पर मजबूती दे सकता है. साथ ही रेडियो के जरिए महिलाओं अपनी भावी भूमिकाओं के लेकर भी बेहतर निर्णय कर सकती हैं.
(साभार- अमर उजाला)

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

ऐसा पर्व जिस दिन ग्वाले घर में दूध नहीं रखते


कल जब पूरा देश गणतंत्र दिवस मनाने में जुटा था, कोसी के ग्वाले "बहरजात" मना रहे थे. यह बहरजात कौन सा पर्व है और इसे क्यों और कैसे मनाया जाता है, क्यों इस दिन ग्वाले अपने घर में दूध नहीं रखते. रघुनी बाबा की क्या कथा है... इस मसले पर पत्रकार सुनील कुमार झा ने फेसबुक वाल पर विस्तार से लिखा है. उस रपट को हम यहां ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं. ताकि आप भी इस अनूठे पर्व के बारे में जान सकें... कुछ ऐसी ही कथा बिसु राउत की भी है, उनकी कहानी पर एक लेखक ने इसी नाम से उपन्यास भी लिखा है. बिसु राउत भी कोसी दियारा के थे. उनकी कहानी फिर कभी...
आज बहरजात (लोकदेवता को प्रसन्न करने का दिन) है. ग्वालों के लोकदेवता रघुनी बाबा को आज प्रसन्न किया जाता है. आज के दिन गाँव के ग्वाले अपने घर में दूध नहीं रखते हैं. किवदंती है कि जो आज के दिन घर में दूध रखता हैं उसको खून की उल्टी होने लगती है. गाँव के ग्वाले आज दूध रघुनी बाबा को अर्पित करते हैं. सामूहिक रूप से खीर बनता है और बाबा को भोग लगाया जाता है. यहाँ दो चमत्कार होते आप देख सकते है जिससे ईश्वर पर आपका भरोसा पक्का हो जाएगा. पहली ... गर्म खीर को चलाने के लिए चम्मच और करछे की जरूरत नहीं होती. रघुनी बाबा जब साधु के उपर आते हैं तो बाबा हाथों से खीर पकाते हैं. खौलते खीर को हाथों से चलाते देखना वाकई रोमांचकारी होता है. दूसरा ... खीर बन जाने पर बाबा दो लोटा जिसमें गर्म खीर भरा होता है लेकर भागते हैं और करीब एक किलोमीटर दूर ब्रह्माथान में चढ़ाते हैं. दोनो हाथों में गर्म खीर का लौटा होता है और बाबा नाचते गाते थान तक जाते हैं. उसके बाद रघुनी बाबा को भोग लगया जाता है और सब प्रसाद ग्रहण करते हैं. सबसे मजेदार बात यह है कि बिना चीनी का बना खीर भी मजेदार होता हैं.
कौन हैं रघुनी बाबा
रघुनी बाबा ग्वालों के लोकदेवता है. बाबा बहुत बड़े गौसेवक थे. उनके पास एक हजार से ज्यादा गायें थीं. बाबा के बारे में किवदंती है कि मुगल बादशाह जब मिथिला आए तो रघुनी को दूध पहुँचाने का आदेश मिला. लेकिन रघुनी बाबा ने मना कर दिया. कुपित होकर बादशाह ने रघुनी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया. कहा जाता है कि सिपाही जब रघुनी को लेकर जा रहे थे तब गौशाला की सारी गाय खुद ब खुद उनके पीछे हो गयीं. और साथ हो चला गाँव के सारे गोप. कहते है कि औरंगजेब के सिपाही जब बाबा पर कोड़े बरसाते तो चोट कोड़े मारने वाले को लगता. सिपाहियों ने परेशान होकर मिर्च के धुएँ से भरी कोठरी में बाबा को डाल दिया. कहते हैं मिर्च का धुआँ सुगंधित धुएँ में बदल गया. बाबा को बहुत कष्ट दिया गया लेकिन उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रही. अंततः हारकर बाबा की रिहाई का आदेश दे दिया गया. लेकिन बाबा ने अकेले जाने से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि जब तक आप सारे बंदियों को रिहा नहीं करेंगे हम जेल नहीं छोड़ेंगे. अंततः सारे कैदियों को रिहा कर दिया गया. कहते हैं उसके बाद मुगल साम्राज्य खत्म हो गया. लोग कहते हैं बाबा को गिरफ्तार करने का फल उन्हें मिला.

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

चनका में चमका आभासी दुनिया का सितारा


बीते रविवार को माटी के कथाकार गिरींद्रनाथ झा के गांव चनका में फेसबुकियों की जमात जुटी थी. साइबर संसार के याराने को असली दुनिया में टटोलनी की कोशिश हमारा पुराना शगल है. मगर यह जुटान अक्सर राजधानियों और बड़े शहरों में होता है. शायद ऐसा पहली दफा हुआ कि लोग एक छोटे से गांव में जुटे, वह भी भीषण सरदी में. तसवीरों में घूरा तापते हुए बतियाते लोगों को देखा जा सकता है. छोटे से गांव में साइबर महारथियों के इस जुटान को फेसबुक और वेबमीडिया समेत अखबारों ने भी भरपूर तवज्जो दी. कई लेख लिखे गये. भरपूर तसवीरें साझा की गयीं. उन्हीं में से एक आलेख सुनील झा जी का है जो मूलतः मैथिली में था, हमारे अनुरोध पर उन्होंने इसे हिंदी में करके भेजा है, पगडंडी के सहयात्रियों के लिए...
सुनील कुमार झा
रवि‍वार को पूर्णिया के श्रीनगर प्रखंड के एक छोटे से गाँव चनका में, जब देश-विदेश से आए आभासी दुनिया के सितारे अपनी चमक बिखेर रहे थे उस समय बचपन में हीरो-होंडा का एक विज्ञापन बार-बार याद आ रहा था, जिसमें कहा गया था- जो सड़क गाँव से शहर की ओर जाती है, वही शहर से गाँव की ओर भी जाती है. स्थानीय किसान और सोशल मी़डिया में सक्रिय गिरीन्द्र नाथ झा और श्रीनगर डयोढी के चिन्मयानंद सिंह ऐसे ही रास्ते को आज कोलकाता और दिल्लीत से गाँव की और लाने का प्रयास कर रहे हैं. इनके प्रयास से सोशल मीडिया मीट का आयोजन एक ऐसे गाँव में हुआ जहाँ पहुंचने के लिए अभी भी ढंग की सडक नहीं है, लेकिन आभासी दुनिया से संपर्क के लिए इंटरनेट उपलब्धल है. यह आयोजन बाल्यकाल के भतकुरिया भोज (बच्चों का सामुहिक भोज) का भी स्मरण करवा दिया जिसमें सभी यार दोस्त पुरानी बातें भूला फिर से एकजुट होते थे. तरह-तरह के लोग इस आयोजन में पहुंचे थे. कोई वामपंथी था, तो कोई उत्तर आधुनिक विमर्शकार. कोई आरएसएस का प्रचारक था तो कोई पत्रकार. सोच और भाषा में सब अलग-अलग, लेकिन सबों को जोड़ रही थी एक अदृश्य तरंग. लगभग पूरे दिन के इस जुटान में मुख्य रूप से सोशल मीडिया के लोकतंत्र पर चर्चा हुई. कुछ पुराने और गंभीर सदस्यों ने इसकी पैरवी की कि फालतू टाइप के पोस्ट पर सामूहिक प्रतिबंध लगाया जाये, लेकिन यह प्रस्ताव बांकी सदस्यों को नहीं भाया और प्रस्ताव चर्चा के बिना खारिज कर दिया गया. मीट में जो तार्किक निष्कर्ष निकला वो यह था कि अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक अब ज्यादा हैं जबकि विरोध करनेवालों की संख्या कम होती जा रही है. सोशल मीडिया की दुनिया एक समुद्र की तरह है और इसमें सब को अपनी अपनी नदी को विसर्जित करने के लिए विनम्रता से अनुमति दिया जाना चाहिए.
फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग जैसे सोशल मीडिया से जुड़े लोग जब शहर से कोसी के कछार का रुख करते हैं तो किस्सा बदल‍ जाता है. अमर कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की धरती पर सोशल मीडिया के दिग्गज जब इकट्ठा हुए तो माहौल आंचलिक ग्लोबलाइजेशन का हो गया. बैठक में गाँव के विकास पर कई सुझाव आए और उस पर चर्चा हुई. सबने एक सुर में गाँव के विकास में इंटरनेट और सोशल मीडिया के योगदान को महत्वपूर्ण माना. इसके अलावा ग्रामीण भारत, डिजिटाइलेजशन और सोशल मीडिया से जुड़े तमाम मुद्दों पर इस बैठक में चर्चा हुई. बैठक में मुख्य रूप से नेपाल से आए युवा उद्यमी प्रवीण नारायण चौधरी, वरिष्ठ साहित्यकार और बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी तारानंद वियोगी, स्टील ऑथॉरटि ऑफ इंडिया के सेवानिवृत अधिकारी एनके ठाकुर, शिक्षाविद राजेश मिश्र, धरोहर रक्षा पर काम करने वाले अमित आनंद सहित कई लोग शामिल थे.
कार्यक्रम के आयोजक गिरीन्द्र नाथ ने कहा कि उन्होंने अपने कु‍छ दोस्तों से विचार करने के बाद चनका गाँव में इस तरह के आयोजन की योजना तैयार की थी और आज सबकुछ सफल होता देख वह बहुत खुश हैं‍. उन्होंने कहा‍ कि आगे भी इस तरह के कार्यक्रम आयोजित होते रहेंगे. गाँव में विकास की किरण के साथ डिजिटल दुनिया की रोशनी भी पहुँचे इसकी जरूरत है. प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया के नारे को गाँव तक पहुंचाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों की जरूरत है, ताकि गाँव देहात के लोग भी इंटरनेट के ताकत और फायदे को समझ सके. गिरीन्द्र नाथ ने कहा कि वो आगे भी गाँव-देहात में इस तरह के बैठकों को आयोजित करते रहेंगे. इसके अलावा वह गाँव में स्कूली छात्र के लिए भी एक योजना पर काम कर रहे हैं, इसके लिए आईआईटी खडगपुर के छात्रों के संग वह संपर्क में हैं. योजना के तहत चनका गाँव के ग्रामीण और स्कूली बच्चों को डिजिटल दुनिया से रूबरू कराया जाएगा.
चनका बने आधुनिक ग्रामीण बिहार की पहचान
विगत एक साल पहले तक पूर्णिया के श्रीनगर प्रखंड के छोटे से गाँव चनका का नाम आसपास के जिला के भी लोग ठीक से नहीं जानते थे, लेकिन पिछले एक साल में स्थानीय किसान और सोशल मी़डिया में सक्रिय गिरीन्द्र नाथ झा ने चनका को आधुनिक ग्रामीण बिहार का केंद्र बना दिया है. इस काम में उनका साथ दे रहे हैं बनैली स्टेट के श्रीनगर डयोढी के कुमार चिन्मयानंद सिंह. श्रीनगर बिहार के पहले शिक्षामंत्री कुमार गंगानंद सिंह का गाँव भी हैं. चनका को आधुनिक ग्रामीण बिहार का केंद्र बनाने वाले गिरीन्द्र नाथ झा खुद भी शिक्षित युवाओं के लिए एक आदर्श बन गए हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षित और कानपुर और दिल्ली में पत्रकारिता करने के बाद श्री झा चनका के खेत में अपने आप को समर्पित कर चुके हैं. उनकी किसानी रेणु और गुलजार के सपने को साकार करने के लिए है. गिरीन्द्र नाथ झा उस युवा टोली के लिए एक उदाहरण है जो अपनी जमीन छोड़ परदेश नौकरी के लिए जाते हैं. गिरीन्द्र नाथ झा और चिन्मयानंद सिंह की जोड़ी यहाँ के किसानो को यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया टूल्स से भी परिचय करवा चुके हैं‍. इसके साथ ही पिछले साल इन सबों के प्रयास से चनका में यूनिसेफ के सौजन्य से ग्राम्य फिल्म महोत्सव का आयोजन हुआ है. इसके अलावा अंतराष्ट्रीय साइकि‍ल चालक जोड़ी डेविड आओर लिंडसे फ्रेनसेन चनका आए थे और चनका के किसानों से उन्होंने मुलाकात की थी.

बुधवार, 21 जनवरी 2015

देश के दस गांव जो बन गये हैं दूसरों के लिए नजीर


किसी साइट पर देश के दस बेहतरीन गांवों की सूची देखी तो मैंने भी अपनी पसंद के दस गांव छांट लिये हैं. ये मेरे हिसाब से देश के दस बेहतरीन गांव हैं. जिस जमाने में गांवों को नष्ट-भ्रष्ट करके शहरों को आबाद करने की हवा चल रही है, उसमें इन गांवों ने अपने तरीके से अपने गांवों को आबाद किया है. आइये इन गांवों के बारे में जानते हैं.
1. हिवरे बाजार- 54 करोड़पतियों का गांव
हिवरे बाजार महज कुछ दशक पहले महाराष्ट्र के सुखाडग्रस्त जिला अहमदनगर का एक अति सुखाड़ ग्रस्त गांव हुआ करता था. लोगबाग गांव छोड़कर शहर की ओर पलायन कर रहे थे. उसी दौर में एक युवक मुंबई से नौकरी छोड़कर गांव आ गया. उसने अन्ना के गांव रालेगन सिद्धी को अपना आदर्श बनाया और एक दशक से भी कम समय में इसके हालात बदल गए, अब इसे देश के सबसे समृद्ध गांवों में गिना जाने लगा है. यह सब किसी जादू की छड़ी से नहीं बल्कि यहां के लोगों की सामान्य बुद्धि से संभव हुआ है. यह सब उन्होंने सरकारी योजनाओं के जरिए प्राकृतिक संसाधनों, वनों, जल और मिट्टी को पुनर्जीवित कर किया. अब खेती और उससे जुड़े कार्यों के जरिये लोग भरपूर आय अर्जित कर रहे हैं. दूर दराज से लोग इस गांव की खुशहाली की कहानी जानने पहुंचते हैं.
2. पुनसरी- डिजिटल विलेज
कल्पना कीजिए एक ऐसे गांव की जहां इंटरनेट हो, स्कूलों में एसी और सीसीटीवी कैमरों के साथ मिड-डे-मील भी बढिय़ा मिले. इतना ही नहीं सीमेंटेड गलियां, पीने के लिए मिनरल वॉटर और ऐसी मिनी बस गांव के लिए उपलब्ध हो जो सिर्फ गांव के ही लोगों के आने-जाने के काम आए. यह कोई स्वप्न नहीं है, इस सपने को हकीकत की धरातल पर उतारा है गुजरात के हिम्मतनगर में स्थित पुनसरी गांव के लोगों ने. आज इस गांव की पहचान डिजिटल विलेज के रूप में है. केंद्र सरकार पुनसरी के मॉडल को अपनाकर ऐसे 60 गांव पूरे देश में तैयार करना चाहती है.
3. मेंढालेखा- पूरा गांव एक इकाई
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले का मेंढ़ालेखा गांव भी अजब है. एक दिन गांव की ग्राम सभा बैठी और तय कर लिया कि अब गांव में किसी की कोई व्यक्तिगत जमीन नहीं होगी. गांव के तमाम लोगों ने अपनी जमीन ग्रामसभा को दान कर दी और सामूहिक खेती के लिए तैयार हो गये. मेंढालेखा का इतिहास ही ऐसा है कि वहां लोग ऐसे काम के लिए सहज ही तैयार हो जाते हैं. यह देश का पहला गांव है जहां लोगों ने सरकार से लड़कर जंगल के प्रबंधन का अधिकार हासिल किया. अब उस गांव के आसपास के जंगल के मालिक खुद गांव के लोग हैं. वही जंगल की सुरक्षा करते हैं और वहां उगने वाले बांस को बेचते हैं.
4. मावलानॉंग- एशिया का सबसे स्वच्छ गांव
मेघालय राज्य के छोटा से गांव मावलानॉंग डिस्कवरी पत्रिका ने 2003 में एशिया के सबसे स्वच्छ गांव का खिताब दिया है. यह गांव शिलांग से 90 किमी दूर है. अक्सर यहां की स्वच्छ आबोहवा का अवलोकन करने के लिए पर्यटक पहुंचते हैं. पर्यटक बताते हैं कि आप उस गांव में कहीं सड़क पर या आसपास पॉलिथीन का टुकड़ा या सिगरेट का बट भी नहीं देख सकते हैं.
5. धरनई- ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर गांव
बिहार के जहानाबाद जिले का धरनई गांव संभवतः देश का पहला गांव है जो ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. ग्रीनपीस संस्था के सहयोग से इस गांव ने अपना सोलर पावर प्लांट स्थापित किया है और इन्हें घर में रोशनी, पंखे और खेतों की सिंचाई के लिए चौबीस घंटे अपनी सुविधा के हिसाब से बिजली उपलब्घ है. इस गांव ने 30 साल तक सरकारी बिजली का इंतजार किया औऱ फिर एक नया रास्ता तैयार कर लिया. अब यहां लोग नहीं चाहते कि सरकारी बिजली उनके गांव तक पहुंचे.
6. धरहरा- बेटियों के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा
बिहार के ही भागलपुर जिले का धरहरा गांव पिछले कुछ सालों से लगातार सुर्खियों में रहा है. इस गांव में बेटियों के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा है. इससे यह गांव एक साथ लैंगिक भेदभाव का खिलाफत कर रहा है और पर्यावरण के प्रति अपना जुड़ाव भी जाहिर करता है. इस गांव की थीम को लेकर एक बार बिहार सरकार ने गणतंत्र दिवस की झांकी भी राजपथ पर पेश की थी. हालांकि पिछले साल यह गांव दूसरी वजहों से विवाद में रहा. मगर इस गांव ने अपने काम से देश को जो मैसेज दिया वह अतुलनीय था.
7. विशनी टीकर- न मुकदमे, न एफआइआर
झारखंड के गिरिडीह जिले का यह गांव अनूठा है. पिछले दो-तीन दशकों से इस गांव का कोई व्यक्ति न तो थाने गया है और न ही कचहरी. इस दौर में जब गांव के लोगों की आधी आमदनी कोर्ट कचहरी में खर्च हो जाती है, यह गांव सारी आपसी झगड़े औऱ विवाद मिल बैठकर सुलझाता है. गांव की अपनी पंचायती व्यवस्था है, वही इन विवादों का फैसला करती है.
8. रालेगण सिद्धि- अन्ना का गांव
आप अन्ना के राजनीतिक आंदोलन पर भले ही सवाल खड़े कर सकते हैं, मगर उन्होंने जो काम सालों की मेहनत के जरिये अपने गांव रालेगण सिद्धि में किया है उस पर सवाल नहीं खड़े कर सकते. जल प्रबंधन औऱ नशा मुक्ति अभियान के जरिये अन्ना ने रालेगण सिद्धि को आदर्श ग्राम में बदल दिया. हिवरे बाजार जैसे गांव के लिए रालेगण सिद्धि पाठशाला सरीखी रही है. आज भी लोग उस गांव में जाकर समझने की कोशिश करते हैं कि अन्ना ने कैसे इस गांव की तसवीर बदल दी.
9. शनि सिंगनापुर- इस गांव में नहीं हैं दरवाजे
महाराष्ट्र का एक औऱ गांव. इसे भारत का सबसे सुरक्षित गांव माना जाता है. इस गांव में किसी घर में दरवाजा नहीं है और किसी अखबार में इस गांव में चोरी की खबर नहीं छपी. इस गांव में कोई पुलिस चौकी नहीं है और न ही लोग इसकी जरूरत समझते हैं और तो और इस गांव में जो एक बैंक है यूको बैंक का उसमें भी कोई गेट नहीं है. जाहिर है यह कमाल गांव के लोगों के सदव्यवहार से ही मुमकिन हुआ होगा.
10. गंगा देवीपल्ली- आत्मनिर्भर गांव
अंत में आंध्रप्रदेश का यह आत्मनिर्भर गांव. इस गांव में इतनी खूबियां है कि इसके लिए एक पूरा पन्ना कम पड़ सकता है. यह गांव अपना बजट बनाता है. हर घर से गृहकर इकट्ठा होता है. हर घर अपना बचत करता है. सौ फीसदी बच्चे स्कूल जाते हैं. सौ फीसदी साक्षरता है. हर घर बिजली का बिल अदा करता है. हर परिवार परिवार नियोजन के साधन अपनाता है. समूचे गांव को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है. 33 सालों से पूर्ण मद्यनिषेध लागू है. यह सब इसलिए कि गांव का हर फैसला लोग आपस में मिल बैठकर लेते हैं और हर इंसान गांव की बेहतरी के लिए प्रयासरत है.

जानिये, कैसे घट गया बिहार में सिंचित खेतों का रकबा


दिनेश मिश्र सर ने बड़ी रोचक जानकारी पेश की है. समय के साथ हर राज्य के सिंचित क्षेत्र के रकबे में बढ़ोतरी होती है, यानी सरकार की कोशिशों से उन तमाम इलाकों तक सिंचाई की सुविधा पहुंचती है जहां पहले नहीं थी, इस तरह खेती के लायक जमीन में सिंचित खेतों का हिस्सा बढ़ता है. मगर पिछले कुछ सालों में बिहार में यह रकबा काफी घट गया है. यह कैसे हुआ इसके लिए उत्तर बिहार की नदियों के सबसे प्रमाणिक विशेषज्ञ दिनेश मिश्र सर ने यहां बताया है. यह आलेख हिंदी इंडिया वाटर पोर्टल से साभार लिया जा रहा है.
बक्सर जिले की एक सूखी पड़ी नहर
बिहार राज्य के विभाजन के बाद से ही बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग उठ रही है, मगर पिछले 12 वर्षों में इस दिशा में केन्द्र के समक्ष जो माँगें रखी गईं, उनका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। आमतौर पर विशेष राज्य का दर्जा पाने के लिए जो शर्तें हैं, उन पर केन्द्र सरकार के अनुसार बिहार खरा नहीं उतरता। इसके लिए राज्य के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की अधिकता, आबादी की छिटपुट रिहाइश, उस तक पहुँचने के लिए परिवहन और संचार की मंहगी व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर का नितान्त अभाव जैसी परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं। राज्य को विशेष दर्जा न दिए जाने के पीछे यही तर्क केन्द्र सरकार द्वारा दिया जाता है।
फिलहाल देश में असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा, सिक्किम, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर को ही यह सुविधा उपलब्ध है। बिहार अपने प्रस्ताव में सीमावर्ती राज्य और बाढ़ तक सूखे से परेशानहाल राज्य होने का वास्ता देता है। मगर बात यह कहकर टाल दी जाती है कि सीमावर्ती राज्य तो गुजरात और राजस्थान भी हैं और राजस्थान विरल बसा होने के कारण बहुत पहले से यह रियायत माँग रहा है। बाढ़ और सूखाग्रस्त अनेक - ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे दूसरे राज्य भी उम्मीदवारी रखते हैं। कुल मिलाकर परिस्थिति बिहार के फिलहाल अनुकूल नहीं है। राज्य और केन्द्र में अलग-अलग पार्टियों का शासन में होना एक अलग व्यावहारिक बाध्यता है।
जहाँ तक बिहार में बाढ़ और सूखे का प्रश्न है, राज्य को अगर विशेष दर्जा मिल जाता है तो, इस प्रक्षेत्र में अर्थाभाव की समस्या से निश्चित रूप से निपटा जा सकता है। यह बात निर्विवाद रूप से बिहार के हक में जाती है। यहाँ यह बताना जरूरी है कि अविभाजित बिहार में बड़ी और मध्यम सिंचाई योजनाओं से 66.3 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई उपलब्ध कराई जा सकती थी। 1990 तक जब राज्य में कांग्रेस शासन का अन्त हो गया, बिहार में कुल सिंचन क्षमता 26.95 लाख हेक्टेयर थी और वास्तविक सिंचाई 20.48 लाख हेक्टेयर पर होती थी।
1990 में राज्य में जनता दल/राजद की सरकार बनी और 1999-2000 में जो कि राजद सरकार का अविभाजित सरकार का, आखिरी वर्ष था राज्य की अर्जित सिंचन क्षमता तो बढ़कर 28.18 लाख हेक्टेयर हो गया मगर वास्तविक सिंचित क्षेत्र घटकर 15.95 लाख हेक्टेयर तक नीचे आ गया। यानी इन दस वर्षों में अर्जित सिंचन क्षमता में 1.23 लाख हेक्टेयर की बढ़ोत्तरी हुई मगर वास्तविक सिंचाई क्षेत्र 5.53 लाख हेक्टेयर कम हो गया। राज्य के तत्कालीन जल संसाधन मन्त्री अपनी उपलब्धियों की गाथा बहुत जोर-शोर से सुनाते थे मगर विपक्ष जो कि अब सत्ता में है, शायद ही कभी इन विसंगतियों का संज्ञान लिया हो और सिंचित क्षेत्र में आई गिरावट को किसानों के बीच उजागर किया हो।
2000-01 के वर्ष में जब राज्य का विभाजन हुआ, तब उसके हिस्से में 53.53 लाख हेक्टेयर का वह कृषि क्षेत्र आया, जिस पर बड़ी और मध्यम सिंचाई योजनाओं से सिंचाई सम्भव थी। जहाँ तक बिहार और केन्द्र के सम्बन्धों का सवाल है, भले ही दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार हो, क्या बराह क्षेत्र बाँध पर चर्चा 1937 से, बागमती नदी पर नुनथर बाँध की चर्चा 1953 से और कमला पर शीसापानी बाँध की चर्चा 1954 से नहीं चल रही है? बिहार को विशेष राज्य का दर्जा उसी शृंखला की एक कड़ी है। नेताओं का काम इसी बात से चल जाता है कि उनकी सक्रियता देखकर उनके वोटर प्रभावित रहें। परिणाम क्या निकलता है, जनता को सिर्फ उसी से फर्क पड़ता है। उस समय राज्य की अर्जित सिंचन क्षमता 26.17 लाख हेक्टेयर थी। मगर वास्तविक सिंचाई 15.30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर ही उपलब्ध थी और यह लगभग उतनी ही थी, जितनी राज्य के विभाजन के पहले। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि झारखण्ड को इस तरह की की योजनाओं से कोई खास लाभ नहीं पहुँचता था। विषयान्तर के कारण हम इसके विस्तार में नहीं जाएँगे।
2005-06 में जब राज्य में राजग की सरकार सत्ता में आई, तब उसे विरासत में राज्य सरकार से 26.37 लाख हेक्टेयर की अर्जित सिंचन क्षमता और 16.65 लाख हेक्टेयर का वास्तविक सिंचित क्षेत्र मिला। राज्य में सिंचाई क्षेत्र में जड़ता कुछ शिथिल पड़ने के आसार दिखाई पड़ने लगे, जब 2006-07 में 17.83 लाख हेक्टेयर और 2007-08 में 17.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई उपलब्ध करवाई गई। 2008 में ही कुसहा में कोसी का पूर्वी एफ्लक्स बाँध टूटने से पूर्वी कोसी नहर व्यावहारिक रूप से ध्वस्त हो गई और इससे सिंचाई मिलना बन्द हो गया। नहर टूटने से पहले अगर 2006, 2006 और 2008 में इस नहर के सिंचित क्षेत्र का औसत लिया जाय तो यह नहर 1.37 लाख हेक्टेयर जमीन ही सींच पाती थी। जबकि इसका लक्ष्य 7.12 लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी पहुँचाना था।
तमाम् उपलब्धियों के बावजूद 2009 में राज्य का सिंचित क्षेत्र घट कर 2005-06 के स्तर 16.66 लाख हेक्टेयर पर लौट आया। यहीं से राज्य में सिंचाई का पतन शुरू हुआ। 2010 में राज्य का सिंचित क्षेत्र 12.02 लाख हेक्टेयर और 2011 में मात्र 9.07 लाख हेक्टेयर रह गया। इस तरह से 1989-90 में जहाँ राज्य में 21.48 लाख हेक्टेयर के क्षेत्र पर सिंचाई उपलब्ध थी, वह 2006 में घटकर 16.65 लाख हेक्टेयर पर आ टिकी और अब 9.07 लाख हेक्टेयर पर स्थिर है।
2006 से 2011 के इन वर्षों में राज्य में सिंचन क्षमता में 2.49 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई, मगर वास्तविक सिंचाई में 7.58 लाख हेक्टेयर का ह्रास हुआ। अगर यही रफ्तार बनी रहती है तो जिस विजन 2050 की बात कभी-कभी की जाती है वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते राज्य का जल-संसाधन विभाग अपनी उपयोगिता खो चुका होगा। अब चलते हैं, लघु सिंचाई की ओर। विभाग की 2011 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार छोटे स्रोतों से राज्य की सिंचन क्षमता 64.01 लाख हेक्टेयर है। दसवीं योजना के अन्त तक लघु सिंचाई स्रोतों से 36.26 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचन क्षमता अर्जित की गई, मगर उपयोग केवल 9.72 हेक्टेयर कृषि भूमि पर ही हो सका।
इसमें भी 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई निजी क्षेत्र के नलकूपों से हुई। दसवीं योजना के अंत तक सरकार के अपने नलकूपों की संख्या 4575 थी, जबकि उनमें से मात्र 1630 कार्यरत थे, जिनसे 65,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होती थी। 2010-11 में यह संख्या बढ़कर 1851 हो गई है, मगर इससे कितनी सिंचाई हो सकती है यह विभाग बताने से गुरेज करता है। कुल मिलाकर राज्य में सिंचाई व्यवस्था किसानों के अपने पुरुषार्थ से चल रही है और इसमें सरकार के जल संसाधन विभाग का क्या योगदान है वह तो उसके खुद के आँकड़े बताते हैं। हम स्थानाभाव के कारण बाढ़ नियन्त्रण पर चर्चा नहीं कर पा रहे हैं।
कुछ वर्ष पहले केन्द्र सरकार ने बिहार की बाढ़ और सिंचाई व्यवस्था की बेहतरी पर सुझाव देने के लिये एक टास्क फोर्स गठित किया था। इस टास्क फोर्स की रिपोर्ट के कुछ अंश ध्यान देने योग्य हैं। एससी झा की अध्यक्षता में बनी यह रिपोर्ट कहती है, “राज्य का जल-संसाधन विभाग बहुत बड़ा है, असंगठित है, उसमें जरूरत से ज्यादा लोग काम करते हैं, लेकिन पेशेवर लोगों की कमी है और पैसे का अभाव बना रहता है। आज इस विभाग की जो व्यवस्था है, प्रबन्धन है, नियुक्त कर्मचारियों का स्वरूप तथा उनकी क्षमता है, उसकी पृष्ठभूमि में, यह विभाग बहु-आयामी बड़ी परियोजनाओं का क्रियान्वयन करने में अक्षम है। ज्यादा-से-ज्यादा यह विभाग चालू योजनाओं का रख-रखाव, उनका संचालन और अनुश्रवण कर सकता है। फील्ड के स्तर पर तो हालत इससे भी बदतर है।”

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

हिम्मत और साहस की बेजोड़ कहानी


तहलका के फोटो जर्नलिस्ट विकास कुमार ने अप्पन समाचार की लड़कियों के बारे में एक बढिया रपट लिखी है. अप्पन समाचार की लड़कियों का मैं कायल हूं, क्योंकि ठेठ गांव की इन लड़कियों ने तकनीक का इस्तेमाल करके जो काम किया है वह मुझे भूतो न भविष्यति टाइप लगता है. जाहिर है मित्र संतोष सारंग भी तारीफ के बराबर के हकदार हैं. बहरहाल अनुरोध करके विकास जी से यह खबर मैंने पगडंडी के लिए मांग ली है. शीर्षक भी उन्हीं के फेसबुक स्टेट से लिया है. हमने पहले यह खबर पंचायतनामा के लिए भी लिखी थी, मगर तब हमारे पास उतनी बेहतर तसवीरें नहीं थी जितनी विकास के कैमरे से निकली हैं. और फिर विकास ने नयी निगाह से अप्पन समाचार के काम को देखा है जो इस स्टोरी को पठनीय बनाता है. मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं क्योंकि इन बच्चियों के साथ मुझे भी पूरा दिन गुजारने का मौका मिला है... बहरहाल इस खबर को पढ़ा जाये और इन बेहतरीन तसवीरों का आनंद लिया जाये.... तहलका का आभार...
जनवरी महीने की तीन तारीख है. सुबह के दस बज चुके हैं, लेकिन धूप नहीं निकली है. हम इस वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक छोटे से गांव कोठिया में हैं. गांव के लोग घरों से निकलकर पास की खाली जगह की तरफ जा रहे हैं. गांव के बच्चे भी कमेरा-कमेरा (कैमरा-कैमरा) चिल्लाते उसी ओर दौड़ रहे हैं. यहां एक 20-22 साल की युवती एक खबर बोल रही है और उसकी टीम उसे रिकॉर्ड कर रही है. लेकिन बीच-बीच में बच्चों के चिल्ला देने की वजह से उसे बार-बार रुकना पड़ रहा है. लेकिन इसके बावजूद वह खीझ नहीं रही. मुस्कुराते हुए वह उन बच्चों से कहती है, ‘थोड़ा देर चुप रह जो, फेरू फोटो खिंच देबऊ.’ बच्चों के शोर की वजह से चार-पांच बार रिकॉर्डिंग रुकती है और हर बार टीम की लड़कियां उन बच्चों का मनुहार करती हैं. कुछ कोशिशों के बाद रिकॉर्डिंग पूरी हो जाती है.
समझा-बुझाकर काम करने का यह सिलसिला पिछ्ले सात साल से चल रहा है. साल 2007 के दिसंबर महीने में मुजफ्फरपुर के पारो ब्लॉक के एक छोटे से गांव चांदकेवारी से इस अनूठे समाचार माध्यम ‘अप्पन समाचार’ की शुरुआत हुई, जिसे सात लड़कियां चलाती हैं. संसाधन के नाम पर इनके पास आया एक सस्ता वीडियो कैमरा, एक ट्राईपॉड और एक माईक्रोफोन. और इसके साथ ही शुरू हो गई खबरों के लिए इन लड़कियों की भागदौड़. तब से अब तक यह भागदौड़ बदस्तूर जारी है.
‘अप्पन समाचार’ के पीछे पहल है युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग की. हिम्मत, जुनून और जज्बा उन सात लड़कियों का, जो खबर के लिए साइकल से गांव-गांव जाती हैं. और सहयोग स्थानीय लोगों का, जिन्हें अब उनके इस काम से कोई परेशानी नहीं है. अब तो उन्हें अपने गांव की इन खबरचियों पर गर्व है.
ये सारी लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं. दो लड़कियां गांव के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं जहां इन्हें हर महीने महज 600 रुपये मिलते हैं. इनकी उम्र 14 से 24 साल के बीच है, लेकिन बुलंद हौसलों से लबरेज ये लड़कियां लगातार काम कर रही हैं. सबके सहयोग से अब तक पच्चीस एपिसोड बना चुकी हैं. खबरों के चयन और उनकी रिपोर्टिंग-रिकॉर्डिंग के बाद इन लड़कियों में से कोई उसे लेकर मुजफ्फरपुर जाता है, जो गांव से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर है. वहां एक स्टूडियो में इनकी एडिटिंग होती है. यह स्टूडियो चलाने वाले राजेश बिना किसी शुल्क के इन टेप्स को एडिट करते हैं और एडिट टेबल पर लड़कियों को वीडियो एडिटिंग की बारीकियां भी समझाते जाते हैं. उसके बाद खबरों की सीडी गांव वापस आती है और उसे सीडी प्लेयर के माध्यम से गांव वालों के बीच दिखाया जाता है.
सवाल यह है इतनी मेहनत से इस समाचार माध्यम को चलाने की जरूरत क्या है? इस सवाल के जवाब में टीम की सदस्य सविता कहती हैं, ‘बड़े समाचार चैनल न तो हमारे गांव तक पहुंच पाते हैं और न ही वे हम लोगों की रोजमर्रा की परेशानियां दिखाते हैं. हम लोग इन दिक्कतों से रोज दो-चार होते हैं. ऐसे में हमें अपने बीच की परेशानियों को उठाने और लोगों के बीच दिखाने में खुशी होती है.’
सविता की इस बात को टीम की दूसरी सदस्य ममता आगे बढ़ाती हैं. वह कहती हैं, 'इस तरह की खबर हम ही दिखा सकते हैं. बड़े-बड़े चैनल्स को बड़े-बड़े मुद्दे चाहिए. वह इन मुद्दों पर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं.' इस तरह बातों-बातों में ममता यह अहसास करा जाती हैं कि कथित बड़े चैनल केवल शहरों तक सीमित हो गए हैं. वे चुनाव या किसी बड़ी आपदा के वक्त ही गांव पहुंचते हैं.
इनकी दिखाई खबरों का असर भी हुआ है. ममता कहती हैं, ‘किसान क्रेडिट कार्ड देने के लिए किसानों से पैसे लिए जा रहे थे. हमने खबर बनाई और दिखाई. बैंक मैनेजर से सवाल किया. हमारी खबर की वजह से इलाके के किसानों को मुफ्त में किसान क्रेडिट कार्ड मिले. पास के स्कूल में कमरों का निर्माण घटिया किस्म की ईंटों से किया जा रहा था. हमने उसकी रिपोर्टिंग की और इस वजह से ईंटों की पूरी खेप वापस भेजी गई. जब हमारी वजह से कुछ अच्छा होता है, किसी को उसका हक मिलता है, तो हम सब को बहुत खुशी होती है और इस खुशी के लिए हम और अधिक मेहनत करना चाहते हैं.’
इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही है. इस बारे में संतोष बताते हैं, ‘यह इलाका नक्सल-प्रभावित रहा है. शाम होते ही इस इलाके में आना-जाना बंद हो जाता था. लड़कियों का पढ़ना-लिखना तो दूर की बात थी. आज स्थिति ऐसी नहीं है. आज लड़कियां पढ़ रही हैं.' दरअसल पहली बार इलाके के लोगों को यह दिख रहा है कि उनकी बिटिया बैंक मैनेजर से लेकर बीडीओ तक से सवाल कर रही है. उन्हें यह भी दिख रहा है कि इनके सवाल करने से उनकी जिंदगी की दुश्वारियां थोड़ी कम ही हुई हैं.
लेकिन यह कोशिश आसान नहीं रही है. खबरों की खोज में निकलने वाली लड़कियों और संतोष के सामने इस दौरान कई तरह की दिक्कतें भी आईं, लेकिन इनके बुलंद हौसलों के सामने दिक्कतें छोटी पड़ गईं. संतोष कहते हैं, ‘संसाधनों के मामले में हम शुरू से कमजोर हैं. इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है, लेकिन इस कमी की वजह से यह प्रयास थमेगा नहीं.'
अभी कुछ ही समय पहले की बात है. अमेरिका के एक स्वयंसेवी संस्थान ने टीम से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि वे अप्पन समाचार को सहयोग देना चाह रहे हैं. संतोष बताते हैं, 'हमने उनका स्वागत किया. लड़कियां भी खुश थीं, लेकिन जब वे लोग आए तो पता चला कि इस सहयोग के बहाने वे हमारी पूरी मेहनत को हथियाना चाह रहे हैं. हमने लड़कियों के सामने पूरा प्रस्ताव रख दिया और कहा कि वे चुनाव कर लें. लड़कियों और ग्रामीणों ने एक सिरे से उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम सहयोग जरूर चाह रहे हैं, लेकिन कोई हमारी कीमत लगाए, यह हमें कतई मंजूर नहीं है.’

क्यों तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में...


(धधकता मुजफ्फरपुर का अजीजपुर गांव, तसवीर-मुजफ्फरपुर लाइव के फेसबुक वाल से साभार)
पुष्यमित्र
मुजफ्फरपुर की खबर आपको मालूम है. कैसे लोगों ने पूरी बस्ती आग के हवाले कर दी. मसला यह नहीं है कि चार मरे या आठ. वे हजारों लोग क्या जिंदा थे, जिन्हें घरों को घूरा बना देने में एक पल को संकोच नहीं हुआ. कलेजा तो यह सुनकर कटता है कि यह सब मुहब्बत के नाम पर हुआ. किस शेर को याद करूं... एक आग का दरिया है... या तुम तरस नहीं खाते... जी चाहता है जिगर मुरादाबादी साहब की रूह को बुलावा भिजवा कर कहूं कि आपने जो शेर लिखा था, कभी सोचा था कि वह हकीकत में कैसा होगा... बशीर बद्र साहब तो देखते रहते होंगे. मुजफ्फरनगर और मुजफ्फरपुर में अब फर्क ही क्या रहा... नाम का भी तो नहीं...
भारतेंदु, उसकी बहन नीलम, सदाकत अली और उसकी बहन साथ-साथ पढ़ा करते थे. सातवीं कक्षा से ही इन चारों का साथ बरकरार था. दोस्ती ऐसी थी कि परिवार के नाते-रिश्ते बन गये थे. घरों में आना-जाना लगा रहता था. मगर महज चार साल में वक्त ने बिसात ही पलट कर रख दी. दसवीं की कक्षा में सिर्फ भारतेंदु ही पास हो पाया, बांकी तीनो असफल रहे. कहते हैं इस नतीजे ने पहले सदाकत के मन में खटास को जन्म दिया. फिर भारतेंदु और सदाकत की बहन एक दूसरे को पसंद करने लगे. पहले से मात खाये सदाकत के मन में संभवतः इस बात ने जहर बो दिया.
अब यह पुलिस अनुसंधान का मसला है कि भारतेंदु कैसे लापता हुआ और उसका कत्ल किसने किया. कहा जाता है कि सदाकत ने भारतेंदु को विदेश में नौकरी दिलाने का ऑफर दिया था, इसी वजह से भारतेंदु पटना से अपने गांव लौटा था. साल भर से भारतेंदु और सदाकत के बीच बातचीत बंद थी. नये साल के मौके पर दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई थी. भारतेंदु सहनी नौ जनवरी को अचानक लापता हो गया और 11 जनवरी को भारतेंदु के पिता कमल सहनी ने सदाकत को आरोपी बनाते हुए एफआइआर दर्ज करा दिया. फिर अचानक भारतेंदु का शव सदाकत के घर के पास बरामद हुआ और अजीजपुर बलिहारा गांव धधक उठा.
अब सवाल उठता है कि आखिर भारतेंदु का शव देखकर क्यों हजारों लोग बस्ती जलाने निकल पड़े. पहले तो तय होना चाहिये था कि आखिरकार हत्या किसने की. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि हत्या सदाकत ने ही की होगी. अगर मान भी लिया जाये कि हत्या सदाकत ने की है तो क्या उसका दंड उसके परिवार-नातेदार, पड़ोसियों और कौम के लोगों को देना जायज है? हमारे मन में एक पुरानी ग्रंथी बैठी रहती है. हम एक व्यक्ति की गलती की सजा उसके परिवार, समाज, जात और कौम को देने पर उतारू हो जाते हैं. हम उसे इंडीविजुअल नहीं मानते. इसी ग्रंथी की वजह से लोग रेपिस्ट की मां-बहन से रेप करना जायज मान बैठते हैं. बेटे की सजा पिता को देते हैं.
मेरा दावा है कि देश के 99 फीसदी लोग इस ग्रंथी से मुक्त नहीं हैं. अगर मुक्त होते तो इस देश में मां-बहन के नाम से गालियां नहीं प्रचलित होतीं. आखिर इन गालियों का मकसद किसी व्यक्ति के अपराध की सजा उसकी मां और बहन को देना ही तो होता है. सारे दंगे इसी वजह से होते हैं. जमाना व्यक्तिवाद से भी आगे निकल जाने की हड़बड़ी में है, मगर हम कौम और समाज की इकाई से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. अगर यह सच है कि सदाकत ने ही भारतेंदु की हत्या की या करवाई है, तो भी यह मामला भारतेंदु की मोहब्बत और सदाकत की नफरत का है. इसके आगे यह एक पुलिस केस है. मगर नहीं, लोग सदाकत की नफरत का सिला उसके पूरे कौम को देना चाहते हैं. समाज अचानक एक्टिव हो जाता है और फैसले लेने लगता है.
(अजीजपुर गांव में अगलगी के बाद अपने किराना गुमटी के सामने बचे सामान को बटोरती नसीमा बानो. तसवीर-प्रशांत रवि)
सवाल यह भी है कि हमारा समाज ऐसे ही वक्त में क्यों एक्टिव होता है? कहीं इसके पीछे कोई पॉलिटिकल लोचा तो नहीं. कहीं एंटी लव जिहाद टाइप एंगल तो नहीं निकाला जा रहा है? बहुत मुमकिन है ऐसा हो... और ऐसा नहीं होना भी उतना ही मुमकिन है. यह उसी तरह है जैसे यह मुमकिन है कि सदाकत ने ही भारतेंदु का कत्ल किया होगा और यह नहीं होना भी उतना ही मुमकिन है. इसलिए जैसे कुछ लोग सदाकत के हत्यारे होने के नतीजे पर फट से पहुंच जाते हैं, वैसे ही कुछ लोग इसमें पॉलिटिकल फ्लेवर की बात भी फट से सूंघ लेते हैं. मेरे हिसाब से दोनों अनुमान आपराधिक हैं. इससे नफरत बढ़ता है और आम लोगों की जान गंड़ासे की नोक पर पहुंच जाती है.
यह ठीक है कि हमारे गांव में जो समाज नाम की अनौपचारिक संस्था बची खुची बरकरार है, उसमें कुछ भी पॉजिटिव करने का धैर्य और हौसला नहीं बचा है. मगर उसकी भावना बहुत जल्द आहत हो जाती है, छोटी सी बात को लेकर उसे लगने लगता है कि कौम या बिरादरी के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है. इसलिए नेता नगरी कभी चार तो कभी दस बच्चे पैदा करने का फालतू फार्मूला उसे सुझाने लगती है. यही वजह है कि अपनी बेटी का दूसरी बिरादरी में चली जाना उसके लिए आन का मसला बन जाता है और दूसरे बिरादरी की बेटी लाना फख्र की बात. अब यहां उस घिसी पिटी बात को याद दिलाने का कोई तुक नहीं है कि यह समाज अपनी ही बेटियों को जन्म से लेकर उसके हर संस्कार के मौके पर कितना ह्यूमिलियेट करता है. हां उससे हम एक्सपेक्ट तो कर ही सकते हैं कि वह चार बच्चे पैदा करे, पति की चिता पर सती हो जाये और मलेच्छों के हाथ में पड़ने से पहले जौहर कर ले.
हम क्यों पांच सौ साल पुरानी सोच को छोड़ देने के लिए तैयार नहीं हैं. जबकि हम एक मोबाइल हैंडसेट को दो साल से अधिक यूज करने के लिए रेडी नहीं हैं. हम दीवार फिल्म के जमाने का बेलबॉटम आज पहन नहीं सकते मगर राजपूताना की उस ईगो वाली थ्योरी को आज भी बड़े गर्व के साथ ओढ़े हुए हैं. बदलिये भाई. बदलने के बिना आप सड़े जा रहे हैं.
भारतेंदु की मोहब्बत और सदाकत की नफरत को उसका निजी मामला बने रहने दीजिये. अगर सचमुच सदाकत की बहन के दिल में भारतेंदु के लिए मोहब्बत होगी तो सोचिये उस बच्ची पर क्या गुजर रही होगी. क्या आपके पास उसके दिल के जख्मों के लिए कोई दवा है... सदाकत की नफरत का इलाज पुलिस प्रशासन को करना है. न्याय की दरकार कमल साहनी के परिवार को है, दो हजार की भीड़ को नहीं. अब उनके चार या आठ लोगों को कैसे न्याय मिलेगा जिसका फैसला आपने अपने जुनून में कर दिया. उन्हें मछलियों की तरह जिंदा भून दिया. उनके परिजनों के आंसू कौन पोछेगा. जिस तरह भारतेंदु बेगुनाह था, उसी तरह वे लोग भी तो बेगुनाह ही होंगे... और क्या लिखूं...

सोमवार, 19 जनवरी 2015

रिबनवाली लड़की नहीं थीं


मिथिलेश कुमार राय
प्रतीकात्मक तसवीर
वसंत आ रहा था. खेतों में हरे-हरे गेहूं के पौधे और पीले-पीले सरसों के फूल पछिया हवा के संग झूम रहे थे. खेत की मेड़ पर कुछ लड़कियां विचर रही थीं. सभी लड़कियों ने दो चोटी बांध रखी थीं. गूंथे हुए बालों में हरे पीले नीले लाल रिबन से फूल बने हुए थे. खेत फूलमय हो गया था. चिड़िया हवा में गोते लगा रही थीं. लेकिन आँख खुली तो सबकुछ था,रिबनवाली लड़की नहीं थीं. मैं 17 साल पीछे लौटा तो मेरी बंद आँखों के पार रंग-बिरंगे रिबन से अपने बालों को बांधी कई लड़कियां खिलखिला रही थीं. दोपहर को मनिहारावाला मिल गया. मैंने उसे टोका. पूछा कि रिबन है... तो वह ठठाकर हँस पड़ा. साईकिल रोककर उसने बताया कि अब लड़कियों ने बाल गूंथने की क्रिया पर लगाम लगा दिया है. बाल एक क्लिप या रबड़-बैंड के साथ खुले-खुले उड़ते रहते हैं.
मनिहारावाले ने भी रिबन से बाल बाँधने वाली लड़कियों को कई वर्षों से नहीं देखा था. वह इतने वर्षों से मनिहारा का सामान बेच रहा है कभी किसी ने रिबन के बारे मेँ उस से नहीं पूछा. उसने मुझे बताया कि रिबन से बाल बाँधने वाली लड़कियां अब सिर्फ बीत गये दृश्यों में मिलेंगी.
इस बात का जिक्र मैंने अपनी बड़ी बहन से किया तो वह भी खिलखिलाने लगीं. बताया कि बचपन में जब वो मेला-ठेला जाने लगती थीं, माँ उसके बालोँ को गूंथकर लाल रिबन से एक फूल बनाती थी. कितना अच्छा लगता था. तब सारी लड़कियां रिबन का ही इस्तेमाल किया करती थीं. स्कूल आनेवाली हरेक लड़कियों के बालों में एक फूल खिला होता था जो रिबन से बना होता था. बहन की बात सुनकर माँ को भी अपना बचपन याद आ गया. उसने बताया कि तब क्लिप और रबड़-बैंड जैसा कुछ भी नहीं था. बाल बांधने के लिए सिर्फ रिबन था. माँ ने अपना पुराना संदूक खोला. बहुत ढ़ूंढ़ा. लेकिन रिबन कहीं नहीं मिला. अब माँ भी रबड़ बैँड लगाकर अपने बालों को संवारती हैं. रिबन कब कहां खो गया, उन्हें भी कुछ याद नहीं.
शाम को चाय की दुकान पर अपने एक पत्रकार साथी से पूछा तो उन्होंने याद दिलाया कि रिबन को उद्घाटन में कैंची से काटने के लिए जब्त कर लिया गया है!

देखबे बाई मरबे झन.......


शेफाली चतुर्वेदी
"देखबे बाई मरबे झन ,मोर इन्तजार करबे (देखना बाई मर मत जाना ,मेरा इंतज़ार करना )" हाँ , उसे ये ही कहकर उसका कन्धा झक झोर मैं दिल्ली चली आती थी / मैं हाथ हिलाकर घर छोड़ के यात्रा पर निकल आती ,पर वो अगली बार मेरे वापिस पहुंचने तक बेचैन ही रहती/ मैं क्या कोरबा में हमारी कॉलोनी में पले बढे न जाने कितने बच्चे उसे ऐसे ही छोड़ आते थे और वो वहीँ खड़ी सबकी वापसी की राह देखा करती /न जाने कितने परिवारों के लिए उसका जिया ऐसे मिरमिराता था जैसे वो ही उन परिवारों की सर्वे सर्वा हो / हमारी काफी परेशानियों का हल थी वो,बिलकुल सिंड्रेला की कहानी वाली परी सा हाल था उसका/ क्या हुआ अगर हमारी परी बूढी,बिना दांत की,करीब करीब कुबड़ी थी /वो हमारे लिए अप्सराओं से भी कहीं ज़्यादा खूबसूरत थी/आम बोलचाल में कहें तो वो हमारे घर की कामवाली थी /पर सिर्फ बर्तन -कपडे और झाड़ू पोंछा उसका काम था /बाकी वो जो कुछ करती वो उसकी ममता थी/
नाम -'तारन ' ,यथा नाम तथा गुण /१३ साल की उम्र से लेकर ६० पार के वयस तक न जाने कितनी ज़िंदगियाँ तार दी उसने/१२ साल की थी जब उसका ब्याह ज़मींदार के २० वर्षीय बेटे से हुआ /परिवार कल्याण मंत्रालय के विभिन्न संदेशों की गूँज शायद उस तक नहीं पहुँच पायी थी/१४ साल से २५ की उम्र तक लगभग हर साल गर्भवती हुई / पांच लडकियां दो बेटे हैं उसके / उसने बताया था कि पीलिया से उसके पति की जान गयी ,उसने घर और खेत के साथ बच्चे भी संभाले , कैसे पत्नी प्रेम के मारे उसके बेटे ने अंगूठा लगवाकर छै बीघा ज़मीन अपने नाम कर ली और वो बेटियों की ऊँगली पकड़कर कोरबा पहुंची थी/साहब मेमसाहब जब काम पे जाते तो तारन उनके बच्चों को नाश्ता कराती,खेलने पार्क ले जाती,कहानियाँ सुनाती /और हाँ मम्मी की मार से भी तो वो ही बचाया करती थी / एक तरह से दूसरों के बच्चों का ख्याल रख कर वो अपने बच्चों के लिए खुशियाँ जुटाती थी / जिन जिन घरों में तारन काम करती थी ,सब जानते थे कि वो अकेली है इसलिए कई लोगों ने उसे अपने घर पर रहने का प्रस्ताव दिया /पर, कभी छह बीघा ज़मीन की मालकिन रही तारन की खुद्दारी में कोई कमी नहीं आई थी/ सबका प्रस्ताव विनम्रता से ठुकराकर वो नज़दीक ही अयोध्यापुरी नाम की बस्ती में रहने लगी थी/ एक एक कर के उसने बेटियों की शादी की और ज़िम्मेदारियों से ही नहीं वो बेटियों से भी छूट गयी थी /उसकी दो बेटियां काम की तलाश में दिल्ली चली आयीं थी और तारन कई साल तक उनका इंतज़ार ही कर रही थी /शायद तारन जैसी कई माएं छत्तीसगढ़ में ऐसे ही अपने बच्चों की एक झलक के लिए तड़पकर दम तोड़ देती हैं पर जम्मू,पंजाब,दिल्ली,हिमाचल और लेह चले आये उनके बच्चे जैसे उन्हें लगभग बिसरा ही देते हैं /
जब मैं पढाई के लिए भोपाल आई तो जैसे वो मुझे खुद ब खुद दूर करने में जुट गयी थी,जैसे खुद को समझा रही हो /मेरे छोटे भाई को देखकर बोली "मोर तो ए ही टूरा हे , देखबे जब मरहुँ तो ए ही मोला मिटटी देबे /मोर आपन टूरा मन तो मोला बिसरा दीन हैं /"हिंदी में कहूँ तो उसे विश्वास था कि मेरा छोटा भाई ही उसे मुखाग्नि देगा/बहरहाल , बाई अब बीमार रहने लगी थी , दमा उसका दम निकाल दिया करता था / अचानक एक दिन सुबह सुबह वो घर पर धमक गयी/बोली ,अब काम नहीं करूंगी ,लड़के ने गाँव बुलाया है /लड़के के पास जाने से कहीं ज़्यादा ख़ुशी उससे उस गाँव और खेत के साथ उस घर लौटने की थी,जहाँ कभी वो ब्याह कर आई थी/हो भी क्यों न ,उसके पति की यादें भी तो वहीँ से जुडी थी /डबडबाई आँखों से उसने विदा ली ,वो गई पर हर मौके पर अभी भी याद आती है/ घर का माली उसके ही गाँव का था/ वो ही समय समय पर उसके ज़िंदा और स्वस्थ होने की पुष्टि भी कर दिया करता था/ सुना है वापिस लौटकर कुछ ही दिनों बाद उसने खाट पकड़ ली थी /हम लोगों ने जब कोरबा छोड़ा तब उसे गए २ साल हो चुके थे / कोरबा से घर शिफ्ट किये हम लोगों को अब पांच साल हो चुके हैं/तारन बाई की अब कोई खबर नहीं मिलती /अब ऐसा कोई ज़रिया नहीं जिस से पता लग सके कि वो है भी या नहीं/
दिल्ली में जब कभी कुछ बंधुआ मज़दूरों के छूटकर छत्तीसगढ़ वापिस जाने की खबर देखती सुनती हूँ ,कहीं खो जाती हूँ/सोचती हूँ काश !बाई को भी अपने बेटी दामाद मिल जाते /काश ! तारन के बेटे बहू ने उस से किनारा न किया होता, उस बूढी परी से इतने साल तक अपना घर न छूटा होता/ /काश! इन परियों को भी उतना ही प्यार मिल पाता जितना उन्होंने हमें दिया /
बहरहाल , कोरबा की ये सिंड्रेला अपनी बूढी परी को अभी भी जब याद करती है तब उसे अपनी ही आवाज़ गूंजती सुनाई देती है 'देखबे बाई मरबे झन........
(लेखिका बीबीसी मीडिया एक्शन और एआइआर एफएम गोल्ड में कार्यरत हैं, उनके ब्लॉग शेफालीनामा से साभार )